छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर में एक ऐसा खास मंदिर है, जो अपने आप में कई रहस्य समेटे हुए है. यहां भक्तों का डेरा लगता है, यहां मां अपने दिव्य स्वरूप जगदम्बे में विराजती है, यहां आकर रहने वाला सख्स यही का होकर रह जाता है. यहां दो बहनों के दर्शन मात्र से हर संकट टल जाता है और सुकून की अनुभूति होती है. अंबिकापुर में एक ऐसा मंदिर है जहां बिना सिर वाली मूर्ति की पूजा की जाती है. बताया जाता है कि महामाया मंदिर के नाम पर अंबिकापुर का नाम पड़ा है. महामाया या अंबिका देवी के सम्मान में अंबिकापुर को ये नाम दिया गया है. ये मंदिर आदि सक्ति मां महामाया का है. इसे मां महामाया की नगरी के रूप में जाना जाता है.

सालभर लगा रहता है भक्तों का तांता

बता दें कि अंबिकापुर के मां महामाया का पावन मंदिर है, जो अंबिकापुर जिला मुख्यालय से महज 3 किलोमीटर पर ही स्थित है. मां महामाया के प्रांगण में पहुचते ही आपको यहां के अदभुत शक्ति का आभास होने लगेगा. यहां मां महामाया के साथ-साथ माँ विन्ध्वासिनी की प्रतिमा स्थापित है. बाए ओर की लाल रंग की प्रतिमा मां महामाया की है, तो वहीं बाए और स्याम स्वरुप में मां विंध्यवासनी विराजमान है. जो लाल रंग की मूर्ति है वो महामाया मां है और काले रंग की मूर्ति विंध्यवासिनी मां की है.

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वैसे तो यहां नवरात्र के समय इतनी भीड़ होती है कि मां के दर्शन करने में घंटो लग जाते है. लेकिन सालभर भी यहां पहुंचने वाले भक्तों का तांता लगा रहता है. कोई यहां धन्य धान्य मांगने पहुंचता है, किसी के कष्टों का निवारण यहां पहुंचते ही हो जाता है, तो कोई संतान सुख के लिए यहां पहुंचता है. यहां आने वाले भक्तों की सभी मुरादे मां पूरी करती है और यही कारण है कि न सिर्फ सरगुजा, छग के साथ अन्य प्रदेशों से भी भक्त यहां माता के दर्शन को आते हैं.

बैगा द्वारा श्रृंगार और पूजा के बाद पंडित करते हैं पूजा

मां महामाया मंदिर को लेकर यहां कई प्रकार की मान्यताएं और कथाएं भी प्रचलित है. वैसे तो यहां स्थापित मां महामाया स्वयंभू है, यानी इनकी स्थापना यहां नहीं की गई बल्कि हजारों साल से मां की प्रतिमा यहा है. रक्सेल राजाओं के साम्राज्य स्थापित होने के साथ ही इस इलाके में रक्सेल राजाओं का आधिपत्य हुआ और तब से मां महामाया सरगुजा राजपरिवार की कुल देवी के रुप में पूजी जाती है. यहां के पूजा की एक खास बात ये है कि इस मंदीर में मां का श्रृंगार और प्रथम पूजा बैगा के द्वारा किया जाता है और बैगा पूजा के बाद पंडित यहां पूजा करते है.

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सैकड़ों साल पहले था घनघोर जंगल

मान्यता है कि बैगा पूजा बेहद खास होती है और उसका अपना अलग महत्व है. सरगुजा राज परिवार के द्वारा यहां सैकड़ों साल पहले से ही मां की आराधना की जाती है. शुरुआत में यहां सिर्फ एक चबूतरा था, जहां घनघोर जंगल हुआ करता था और शेर यहां के चबूतरे में विश्राम किया करते थे. यह भी मान्यता है कि मां के सवारी के रूप में शेरो का यहां डेरा हुआ करता था. जब राजपरिवार यहां पूजा करने आते थे, तो ढोल नगाड़ों की आवाज से शेरों को हटाया जाता था और यहां पूजा अर्चना हो पाती थी.

राजपरिवार को संतान प्राप्ति के बाद हुआ था मंदिर का निर्माण

यहां मंदिर बनाने के पीछे भी कुछ रोचक बातें भी हैं. ऐसा माना जाता है कि सरगुजा राज परिवार में संतान संकट खड़ा हो गया था, ऐसे में यहां राजपरिवार ने अपनी फरियाद रखी. जिसके बाद राजपरिवार को संतान प्राप्ति हुई. इसके बाद यहां एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया गया था. जो आज भी यहां विद्यमान है.

नहीं है मां महामाया के प्रतिमा का सिर

सरगुजा में स्थापित मां महामाया के प्रतिमा को लेकर भी बेहद रोचक बात है, जिसे सुनकर आप भी अपरज करेंगे. मां महामाया के प्रतिमा का सिर नहीं है, इसे हर शारदीय नवरात्र के समय बैगा व कुम्हार के द्वारा बनाया जाता है और पुराने सिर को नदी में प्ररवाहित किया जाता है.

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ऐसी मान्यता है कि सरगुजा में स्थापित मां महामाया की गाथा सुनकर मराठा शासक प्रतिमा को ले जाना चाहते थे और उन्होंने कई बार यहां हमला भी किया और इसी के सुरक्षा के तहत तत्कालीन समय में जहां दो प्रतिमाएं स्थापित यही उनमें से एक प्रतिमा को मुख्य मंदिर से आधा किलोमीटर दूर स्थापित किया गया. जिसे छोटी महामाया या समलाई के रूप में जाना जाता है. कहा ये भी जाता है कि यहां के मां की प्रतिमा का सिर कुछ लोगों द्वारा ले जाया जा रहा था, जो आज रतनपुर महामाया के रुप में जाना जाता है. चूंकि खंडित प्रतिमा की पूजा नहीं होती यही कारण है कि हर साल मां का नया सिर बनाया जाता है और बगल में मां विंध्यवासनी की स्थापना भी की गई.

यहां ऐसी मान्यता है कि कोई मुराद मांगकर यहां ज्योति कलश की स्थापना भक्त करते हैं, तो मां उनकी मनोकामना अवश्य पूर्ण करती है. इस मंदिर की आस्था का प्रताप बढ़ता दिनों दिन ही जा रहा है. क्योंकि यहां ज्योति कलश न सिर्फ प्रदेश व देश बल्कि दूसरे देशों से भी प्रज्वलित होते है. यहां घी व तेल के अखंड ज्योति कलश नवरात्र में जलाए जाते हैं. जिसके लिए बाकायदा एडवांस बुकिंग की जरूरत भी पड़ती है.