कर्ण मिश्रा, ग्वालियर। शहर के गंगादास जी की शाला में साधु संतों ने 1857 की क्रांति के अस्त्र-शस्त्र का पूजन किया। परम्परा के तहत संतों ने मुगल सम्राट अकबर के द्वारा तत्कालीन महंत को उपहार में दी गई तोप से धमाका कर संतों को सलामी भी दी।
परंपरा के तहत तोप चलाई
दरसअल गंगा दास जी की बड़ी शाला वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई बाई की शहादत के लिए जानी जाती है। यह साधु संतों का प्राचीन अखाड़ा है जहां 1857 की क्रांति में भाग लेने वाले साधु संतों के वह अस्त्र-शस्त्र रखे हैं। जिसके जरिये उन्होंने वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई के प्राणों को बचाने अंग्रेजो से मुकाबला किया था। दशहरे के दिन इन अस्त्र-शस्त्र का विधि पूर्वक पूजा अर्चना की जाती है। साधु संतों ने अस्त्र-शस्त्र का पूजन किया और फिर परंपरा के तहत तोप चलाई।
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तोप करीब 400 साल पुरानी
बता दें कि यह तोप करीब 400 साल पुरानी है, गंगा दास जी की शाला के तत्कालीन महंत परमानंद महाराज को अकबर ने ये तोप भेंट की थी। अकबर उनके शिष्य परंपरा से जुड़ना चाहता था जिसके लिए गंगा दास ने उन्हें कहा कि जब तक वह सभी धर्म का सम्मान नहीं करेंगे तब तक वह इस परंपरा से नहीं जुड़ सकते हैं। उनकी प्रेरणा से अकबर ने दिन ए इलाही धर्म की शुरुआत की और गंगादास जी को तोप भेंट में दी।
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745 साधु संतों ने अपना बलिदान दिया
सन 1857 की क्रांति के दौरान साधु संतों ने रानी लक्ष्मीबाई की रक्षा के लिए अंग्रेजों से युद्ध लड़ा था। उस दौरान इस तोप का इस्तेमाल अंग्रेजों के खिलाफ किया गया था। करीब 745 साधु संतों ने अपना बलिदान दिया, यहीं पर रानी लक्ष्मीबाई की शहादत हुई थी, आज इस जगह रानी लक्ष्मीबाई की समाधि भी बनी है।
बाइट -रामसेवक दास महाराज- श्री पूर्ण बैराठी पीठाधीश्वर, गंगादास जी की बड़ी शाला
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