आशुतोष तिवारी, जगदलपुर। विजयदशमी के अवसर पर जहां पूरे देश में रावण दहन की परंपरा निभाई जाती है, वहीं छत्तीसगढ़ के बस्तर में इस दिन अपनी अनोखी और विश्व प्रसिद्ध परंपरा ‘भीतर रैनी’ के लिए जाना जाता है। गुरुवार और शुक्रवार की आधी रात को इस रस्म का आयोजन धूमधाम से किया गया।

कहा जाता है कि दंडकारण्य क्षेत्र यानी बस्तर कभी रावण की बहन शूर्पणखा का नगर माना जाता था। इसी कारण यहां रावण दहन नहीं होता, बल्कि शांति और सद्भावना के प्रतीक के रूप में देवी मां दंतेश्वरी की पूजा की जाती है।

इस दिन आदिवासी समुदाय हाथ से बने आठ चक्कों वाले विशालकाय विजय रथ को खींचते हैं। रथ पर मां दंतेश्वरी का छत्र और खड़ा तलवार रखकर विजयदशमी की रात रथ चोरी करने की परंपरा निभाई जाती है।

करीब 600 साल पुरानी इस परंपरा के तहत माड़िया जाति के लोग इस रथ को मंदिर से लगभग 4 किलोमीटर दूर कुम्हड़ाकोट के जंगल तक ले जाते हैं। ऐतिहासिक मान्यता है कि राजशाही काल में राजा से असंतुष्ट ग्रामीणों ने रथ चुरा लिया था। बाद में राजा खुद कुम्हड़ाकोट पहुंचे और “नवा खानी” यानी नए चावल से बनी खीर ग्रामीणों के साथ खाकर रथ को शाही अंदाज में वापस लाए। यही रस्म आगे चलकर बाहर रैनी कहलाने लगी।

आज भी हजारों आदिवासी इस परंपरा को निभाते हैं। रथ को खींचते हुए करीब 3 किलोमीटर लंबी परिक्रमा निकाली जाती है और दंतेश्वरी मंदिर के सामने यह ऐतिहासिक रस्म संपन्न होती है। इस अवसर पर हर साल जनसैलाब उमड़ पड़ता है। इस बार भी गुरुवार रात को ‘भीतर रैनी’ की रस्म धूमधाम से निभाई गई।