दक्षिण एशिया की भू-राजनीतिक परिदृश्य में एक नया बदलाव दिखाई दे रहा है। पाकिस्तान, जो लंबे समय से चीन की छत्रछाया में रहा है और बीजिंग के साथ करीबी आर्थिक और सैन्य संबंध बनाए रखा है, अब अमेरिका और तुर्की के साथ अपनी साझेदारियों को नई गति दे रहा है। यह बदलाव इस्लामाबाद की विदेश नीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। इससे न केवल पाकिस्तान की रणनीतिक स्वतंंत्रता बढ़ सकती है, बल्कि यह भारत के सुरक्षा ढांचे, व्यापारिक हितों और क्षेत्रीय प्रभाव के लिए सीधे तौर पर चुनौती पेश कर सकता है।

पाकिस्तान और अमेरिका के बीच बढ़ती कूटनीतिक और सैन्य बातचीत, साथ ही तुर्की के साथ सहयोग, भारत के लिए नए सुरक्षा और कूटनीतिक परिदृश्य खड़े कर रहे हैं। इसके तहत भारत को अपनी क्षेत्रीय रणनीति, सीमा सुरक्षा और आर्थिक साझेदारियों पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है।

पाकिस्तान, आर्थिक संकट और राजनीतिक अस्थिरता के बीच, अब अमेरिका और तुर्की को रणनीतिक रूप से अहम प्रस्ताव पेश कर रहा है। इसमें सबसे बड़ा कदम अरब सागर के किनारे स्थित पसनी बंदरगाह को अमेरिका के लिए खोलने का प्रस्ताव है। यह बंदरगाह चीन के ग्वादर बंदरगाह से मात्र 100 किलोमीटर दूर स्थित है, जो इसे रणनीतिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण बनाता है।

पासनी बंदरगाह: अमेरिका के लिए रणनीतिक प्रस्ताव

पाकिस्तान और अमेरिका के बीच संबंध लंबे समय से उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं। शीत युद्ध के दौरान पाकिस्तान को अमेरिका का प्रमुख सहयोगी माना जाता था और उसे सैन्य और आर्थिक मदद दी जाती रही। लेकिन 9/11 के बाद आतंकवाद विरोधी अभियान में पाकिस्तान की दोहरी नीति—जहां वह कुछ आतंकी समूहों के खिलाफ कार्रवाई करता था, वहीं कुछ पर नरम रवैया अपनाता था—इस रिश्ते को ठंडा कर दिया। 2025 में, हालात बदलते दिख रहे हैं। वाशिंगटन ने पाकिस्तान की ओर फिर से रुख किया है, और इसके पीछे प्रमुख कारण हैं:

क्षेत्रीय स्थिरता सुनिश्चित करना, खासकर अफगानिस्तान और मध्य एशिया के पड़ोसी क्षेत्रों में।

खनिज संसाधनों तक पहुंच—विशेषकर पाकिस्तान के खनिज और ऊर्जा भंडार, जो अमेरिका और उसके सहयोगियों के लिए रणनीतिक महत्व रखते हैं।

चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करना—विशेष रूप से ग्वादर पोर्ट और CPEC (चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा) परियोजना के माध्यम से बीजिंग की बढ़ती शक्ति को ध्यान में रखते हुए।

रिपोर्ट्स के अनुसार, पाकिस्तान ने अमेरिका को बलूचिस्तान के पासनी में 1.2 अरब डॉलर से अधिक की लागत वाले एक “नागरिक” बंदरगाह के निर्माण और संचालन का प्रस्ताव दिया है। यह बंदरगाह चीन के ग्वादर बंदरगाह से मात्र 100 किलोमीटर दूर और भारत-ईरान के संयुक्त रूप से विकसित चाबहार बंदरगाह के पास स्थित है, जो इसे रणनीतिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण बनाता है।

यह प्रस्ताव सितंबर 2025 में पाकिस्तान के सेना प्रमुख फील्ड मार्शल असीम मुनीर, प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच हुई बैठक के बाद सामने आया। विशेषज्ञ मानते हैं कि यह कदम पाकिस्तान की विदेश नीति में संतुलन और रणनीतिक स्वायत्तता बनाने की कोशिश का हिस्सा है, साथ ही अमेरिका के लिए भी अरब सागर में नए व्यापारिक और रणनीतिक अवसर खोलता है।

इस प्रस्ताव को और आकर्षक बनाने के लिए पाकिस्तान ने अमेरिका को अपनी खनिज संपदा, विशेषकर ‘रेयर अर्थ मिनरल्स’ तक पहुंच देने का संकेत भी दिया है। ये खनिज रक्षा और क्लीन एनर्जी टेक्नोलॉजी के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माने जाते हैं, जिससे अमेरिका के लिए इस निवेश की रणनीतिक अहमियत और बढ़ जाती है।

हालांकि आधिकारिक तौर पर यह कहा गया है कि पसनी बंदरगाह पर कोई अमेरिकी सैन्य अड्डा स्थापित नहीं किया जाएगा, फिर भी इसकी भौगोलिक स्थिति इसे रणनीतिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण बना देती है। विश्लेषकों के अनुसार, यह बंदरगाह अमेरिका को अरब सागर और इंडियन ओशियन में रणनीतिक पहुंच देने के साथ ही चीन और भारत-ईरान के ग्वादर और चाबहार पोर्ट्स के समीप स्थित होने के कारण क्षेत्रीय भू-राजनीतिक समीकरणों को बदल सकता है।

पाकिस्तान ने अमेरिका को सीमित ड्रोन सुविधाएं प्रदान करने की भी पेशकश की है, जो 2000 के दशक की शुरुआत में शम्सी हवाई अड्डे से अमेरिकी ड्रोन संचालन की याद दिलाती हैं। उस समय अमेरिका ने पाकिस्तान के सहयोग से आतंकवादियों पर हवाई हमले किए थे, लेकिन 2011 में ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद जनता के आक्रोश और राजनीतिक दबाव के कारण यह सहयोग बंद हो गया था। बढ़ते उग्रवाद और गहरी आर्थिक संकट के बीच इस्लामाबाद अब इस तरह के सहयोग को दोबारा स्थापित करने के लिए तैयार है। पाकिस्तान इस कदम से निवेश और कूटनीतिक समर्थन की उम्मीद कर रहा है। अमेरिका के लिए यह प्रस्ताव रणनीतिक रूप से भी आकर्षक है। पासनी में अमेरिकी उपस्थिति से उन्हें अफगानिस्तान और ईरान पर निगरानी करने की क्षमता बहाल हो सकती है, खासकर 2021 में अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद जो निगरानी में कमी आई थी। इससे अमेरिका को क्षेत्रीय सुरक्षा और खुफिया संचालन में महत्वपूर्ण बढ़त मिल सकती है।

तुर्की को 1000 एकड़ जमीन का तोहफा

पाकिस्तान का बाहरी झुकाव केवल अमेरिका की ओर ही नहीं है। तुर्की और पाकिस्तान के बीच पुराने समय से स्थायी संबंध रहे हैं, लेकिन 2025 में यह गठबंधन रक्षा, अर्थव्यवस्था और कूटनीति के क्षेत्रों में अभूतपूर्व रूप से मजबूत हुआ है। इसी साल, तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोआन की इस्लामाबाद यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच 24 समझौते साइन किए गए। इन समझौतों में अनमैन्ड एरियल व्हीकल्स (यूएवी) और रडार सिस्टम्स का संयुक्त उत्पादन भी शामिल है।

प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोआन को कराची इंडस्ट्रियल पार्क में 1000 एकड़ जमीन मुफ्त में देने की घोषणा की। इस क्षेत्र में एक ‘एक्सपोर्ट प्रोसेसिंग जोन’ (EPZ) स्थापित किया जाएगा, जिसमें कर छूट, आसान लॉजिस्टिक्स और मध्य एशिया व खाड़ी देशों तक सीधी शिपिंग की सुविधाएं उपलब्ध होंगी। इस संदर्भ में कराची EPZ को रणनीतिक रूप से ‘इनाम’ और दीर्घकालिक औद्योगिक-मिलिट्री सहयोग की दिशा में पाकिस्तान और तुर्की के बढ़ते रिश्तों का प्रतीक माना जा रहा है। यह कदम पाकिस्तान की बहुपक्षीय विदेश नीति और तुर्की के साथ मजबूत साझेदारी को दर्शाता है।

त्रिकोणीय कूटनीतिक शतरंज

पाकिस्तान की नई बहुपक्षीय कूटनीति अब तीन प्रमुख दिशाओं में फैल रही है:

सुरक्षा और खुफिया सहयोग – अमेरिका के साथ, पसनी पोर्ट और ड्रोन एक्सेस के माध्यम से।

औद्योगिक और व्यापारिक सहयोग – तुर्की के साथ, कराची EPZ और निवेश परियोजनाओं के जरिए।

बुनियादी ढांचा और संपर्कता – चीन के साथ, ग्वादर पोर्ट और बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के माध्यम से।

इन तीनों ध्रुवों के बीच संतुलन साधना पाकिस्तान के लिए चुनौतीपूर्ण होगा। चीन ने ग्वादर और अन्य परियोजनाओं में अरबों डॉलर का निवेश किया है। यदि अमेरिका को पासनी में उपस्थिति मिलती है, तो बीजिंग इसे अपनी सामरिक पहुंच के लिए चुनौती मान सकता है। इस स्थिति में चीन अपनी नौसैनिक और लॉजिस्टिक उपस्थिति बढ़ा सकता है, जिससे अरब सागर में तनाव और बढ़ने की संभावना है।

भारत के लिए क्या मायने?

भारत के लिए यह घटनाक्रम साक्षात रणनीतिक चुनौती पेश करता है। पासनी बंदरगाह भारत के चाबहार टर्मिनल से केवल 300 किलोमीटर दूर स्थित है। यदि अमेरिका को वहां परिचालन पहुंच मिलती है, तो तीन प्रमुख रणनीतिक नोड्स –

चाबहार (भारत-ईरान),

ग्वादर (चीन-पाकिस्तान), और

पासनी (अमेरिका-पाकिस्तान)

एक त्रिकोण बना देंगे, जिसके बीच भारत की रणनीतिक स्थिति जटिल हो सकती है। सुरक्षा दृष्टि से, अमेरिका-पाकिस्तान ड्रोन सहयोग भारत के पश्चिमी सीमांत पर नई खुफिया क्षमताएं प्रदान कर सकता है, जिससे सीमा सुरक्षा और क्षेत्रीय निगरानी के परिदृश्य में बदलाव आ सकता है। आर्थिक और कूटनीतिक दृष्टि से, कराची में तुर्की की बढ़ती आर्थिक उपस्थिति और पाकिस्तान के साथ उसका मजबूत गठजोड़, भारत-विरोधी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अंकारा-इस्लामाबाद साझेदारी को और मज़बूत कर सकता है।

भूगोल के बदले कैश

विश्लेषकों का मानना है कि पाकिस्तान की नई बहुपक्षीय नीति साहसिक जरूर है, लेकिन इसका मूल उद्देश्य ‘भूगोल को बेचकर अर्थव्यवस्था बचाने’ की कोशिश करना है। IMF की कड़ी शर्तों, बढ़ती बेरोजगारी और आंतरिक अस्थिरता के बीच इस्लामाबाद विदेशी साझेदारियों के जरिए नकदी और वैधता जुटाने की कोशिश कर रहा है। हालांकि, इस रणनीति में स्पष्ट विरोधाभास भी मौजूद है. एक ओर वह ग्वादर में चीन के अरबों डॉलर के निवेश पर निर्भर है, तो दूसरी ओर पास ही अमेरिका को निवेश और ड्रोन सुविधाएं देने का प्रस्ताव दे रहा है।

इसी तरह, वह तुर्की को सैन्य सहयोग की पेशकश कर रहा है, जिससे खाड़ी देशों की नाराजगी भी उत्पन्न हो सकती है। पाकिस्तान की यह नीति अल्पकालिक आर्थिक राहत दे सकती है, लेकिन दीर्घकालिक भू-राजनीतिक और सुरक्षा जोखिम भी बढ़ा सकती है, जिससे क्षेत्रीय संतुलन और भारत सहित पड़ोसी देशों की रणनीतिक स्थितियां चुनौतीपूर्ण हो सकती हैं।

भारत के लिए रणनीतिक सबक

भारत के लिए यह हालात नए सिरे से रणनीतिक तैयारी की मांग करते हैं।

उसे पश्चिमी तट पर समुद्री निगरानी को मजबूत करना होगा ताकि अरब सागर और हिंद महासागर में बदलते समीकरणों पर नजर रखी जा सके।

ईरान और खाड़ी देशों के साथ साझेदारी को और गहरा करना होगा, ताकि क्षेत्रीय आर्थिक और कूटनीतिक संतुलन बनाए रखा जा सके।

अपने रक्षा और खुफिया नेटवर्क को आत्मनिर्भर और सक्षम बनाना होगा, ताकि किसी भी अप्रत्याशित परिस्थिति में रणनीतिक विकल्प मौजूद हों।

विश्लेषकों का कहना है कि पाकिस्तान की यह “मल्टी-वेक्टर” कूटनीति फिलहाल उसे कुछ आर्थिक और कूटनीतिक राहत दे सकती है, लेकिन दीर्घकालिक भू-राजनीतिक खेल में अंततः जीत उसी की होती है जिसके पास दृष्टि, संतुलन और रणनीतिक समझ हो—केवल भूगोल और निवेश नहीं।

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