Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor Contact no : 9425525128

जब सब प्राथमिकता है

मंत्रालय में अब किसी काम को गैर-प्राथमिकता कहने की गुंजाइश नहीं बची। नए मुख्य सचिव ने साफ कर दिया है कि सरकार के काम में प्राथमिकता और गैर-प्राथमिकता का वर्गीकरण नहीं होता। सरकार में हर काम प्राथमिकता की ही होती है। मुख्य सचिव की इस टिप्पणी के बाद सचिवों की चुनौती सिर्फ योजनाओं को लागू करने तक नहीं रह गई है। चुनौती यह भी है कि मुख्य सचिव की सोच के अनुकूल काम कैसे किया जाए ! पिछले साहब संतुलन के प्रतीक थे। उनका एक सिद्धांत था, ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर। यदाकदा बहुत जरूरत पड़ने पर ही वह कोई टिप्पणी दर्ज करते थे। नए साहब का सिद्धांत अलग है, सबसे दोस्ती-सबसे बैर। वह प्रो एक्टिव हैं। बैठकों में वह हर किसी को गंभीरता से सुनते हैं, फिर अपनी टिप्पणी दर्ज करने से कोई गुरेज नहीं करते। मुख्य सचिव का ओहदा संभालने के बाद 1 अक्टूबर को मुख्यमंत्री की मौजूदगी में मंत्रालय में एक बड़ी बैठक हुई। पूंजीगत व्यय पर ढीला ढाला रवैया दुरुस्त करने के इरादे से यह बैठक बुलाई गई थी। इस बैठक में पीडब्ल्यूडी विभाग के सचिव ने एक प्रेजेंटेशन दिया। विभाग के बजट के संदर्भ में उठी चर्चा वित्त महकमे तक पहुंच गई। पीडब्ल्यूडी सचिव और वित्त सचिव आमने-सामने थे। दोनों ने आपस में तय कर लिया कि प्राथमिकता वाले प्रोजेक्ट की जानकारी एक-दूसरे से साझा कर ली जाएगी। मुख्य सचिव सब सुन रहे थे। अचानक उन्होंने कहा, प्राथमिकता और गैर-प्राथमिकता में बांटने की बजाए सरकार का हर काम प्राथमिकता की दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। सचिवों को उनकी यह टिप्पणी समझते देर नहीं लगी। खैर, यह अच्छी बात है कि प्रशासनिक कामकाज ज्यादा से ज्यादा दुरुस्त किया जाए, मगर इसका परिणाम यह न हो जाए कि प्रशासनिक ऊर्जा लक्ष्य पर कम और सावधानी में ज्यादा खर्च होने लगे। 

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विकास की फाइलें अटकी हुई है

सूबे में पूंजीगत व्यय का हाल सरकार की विकास प्राथमिकताओं की असल तस्वीर दिखाता है। आंकड़े बताते हैं कि विभाग अपने बजट का आधा भी खर्च नहीं कर पा रहे हैं। राजस्व व्यय यानी वेतन, पेंशन, बिजली, रखरखाव जैसी दिनचर्या के खर्च, यह पूरे अनुशासन से चलता है, क्योंकि इसके बिना सिस्टम रुक जाएगा। लेकिन जहां विकास की असली बुनियाद है, यानी पूंजीगत व्यय, वहां सरकार के कदम बोझिल हो जाते हैं। बजट में पैसे हैं। योजनाएं भी हैं, पर उन तक पहुंचने की प्रक्रिया बेहद जटिल और धीमी है। हर एक फाइल को कई-कई दरवाज़ों से होकर गुजरना पड़ता है। तकनीकी स्वीकृति, वित्तीय अनुमति, टेंडर, पुनः परीक्षण, और फिर प्रशासनिक मंजूरी। नतीजा यह कि साल खत्म होता है, और बजट लैप्स हो जाता है, यानी पैसा वहीं का वहीं रह जाता है। विकास की बुनावट कागजों में रह जाती है। दरअसल समस्या सिर्फ प्रक्रिया की नहीं, मंशा की भी है। कई बार अफसर और नेता वही परियोजनाएं आगे बढ़ाते हैं जो उनके अनुकूल हों। बाकी फाइलें विचाराधीन रह जाती हैं। राज्य का विकास ठहर जाता है। हर साल यही सिलसिला दोहराया जा रहा है। पिछले वित्तीय वर्ष की भी यही तस्वीर थी। वित्त मंत्री ओ पी चौधरी को सभी मंत्रियों को चिट्ठी लिखकर कहना पड़ा था कि बजट खर्च करने पर जोर दें। अगर सरकार वास्तव में विकास को गंभीरता से देखना चाहती है, तो उसे प्रक्रियाओं की गति नहीं, उनके उद्देश्य पर ध्यान देना होगा। पूंजीगत व्यय राज्य की प्रगति का आईना है। फिलहाल यह आईना धुंधला पड़ता जा रहा है।

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वक्त के पाबंद

नए मुख्य सचिव विकासशील वक्त के पाबंद हैं। घड़ी में सुबह के 9 बजते ही वह मंत्रालय पहुंच जाते हैं। इन दिनों मंत्रालय के गलियारों में इसे लेकर खूब चर्चा है। सरकारी व्यवस्था में भला इतनी सुबह कौन काम शुरू करता है। मंत्रालय में लोग इसे भविष्य के एक बड़े संकट के रूप में देख रहे हैं। कहीं देर सबेर ऊपर से नीचे तक के अफसर और कर्मचारियों को यह ताकीद न कर दिया जाए कि चलो अब से सुबह 9 बजे दफ्तर आओ। जब प्रशासनिक मुखिया सुबह दफ्तर पहुंच सकते हैं, तो दूसरे किस खेत की मूली हैं। हालांकि दूसरों पर अभी किसी तरह का दबाव नहीं है। मगर आगे चलकर इस तरह का दबाव बन जाए तो यह कौन जानता है? वैसे भी मुख्य सचिव ने 1 दिसंबर से मंत्रालय में बायोमेट्रिक अनिवार्य कर दिया है। अफसरों के पास किसी तरह का बहाना नहीं होगा। कौन सा अफसर कब मंत्रालय पहुंचा इसका पूरा ब्यौरा मुख्य सचिव की टेबल पर मौजूद होगा। खैर, पीएस टू सीएम सुबोध सिंह के आने के बाद भी अफसरों के दफ्तर पहुंचने के टाइम की मॉनिटरिंग की गई थी। लेटलतीफी देखते हुए यह निर्देश दिया गया था कि अफसरों को 10 बजे तक मंत्रालय पहुंच जाना है। अब लगता है कि मुख्य सचिव की सख्ती से अफसरों को थोड़ा और कसा जा सकता है। दिलचस्प पहलू यह है कि पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश में मंत्रालय के आराम परस्त आला अफसरों पर शिकंजा कसने के इरादे से बायोमेट्रिक कल्चर की शुरुआत की गई थी। शुरू-शुरू में अफसरों ने नाक भौं सिकोड़कर कर बायोमेट्रिक में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। मगर धीरे-धीरे व्यवस्था अपने पुराने ढर्रे पर लौट आई। न जाने छत्तीसगढ़ के मंत्रालय की क्या स्थिति होगी? 

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सख्ती के मूड में सरकार

कलेक्टर-एसपी और डीएफओ कांफ्रेंस के जरिए सरकार का इरादा अफसरों के प्रशासनिक रवैये को दुरुस्त करना है। इरादा रखना एक बात है और इरादे पर अमल हो जाना दूसरी बात। पिछली कांफ्रेंस में बरती गई सख्ती का असर जमीन पर हो गया हो, इसके सबूत नहीं मिलते। कलेक्टरों और एसपी की शिकायतें आनी बंद नहीं हुई। सरकार ने अपना माथा ही पकड़ लिया। दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। यही कहावत इस दफे हो रहे कांफ्रेंस के संदर्भ में सुनाई गई है। चर्चा है कि अब सरकार किसी तरह के कोताही को बरतने के मूड में नहीं है। कलेक्टर्स कॉन्फ्रेंस में 18 विभागों से जुड़े एजेंडों पर समीक्षा की तैयारी है। मुख्यमंत्री चार सौ से ज्यादा पन्नों का आंकड़ा लेकर बैठेंगे। कौन सा कलेक्टर कितने गहरे पानी में है, इसका पूरा बहीखाता मुख्यमंत्री के हाथों होगा। पुअर परफॉर्मेंस वाले अफसरों की खिंचाई तय है। यह खिंचाई बंद कमरे में तो होगी नहीं, लिहाजा अफसरों की धड़कने तेजी से भाग रही हैं। कलेक्टर्स कॉन्फ्रेंस में फूड, एग्रीकल्चर, हेल्थ, एनर्जी, एजुकेशन, एसटी-एससी, अर्बन डेवलपमेंट, रुरल डेवलपमेंट, टेक्निकल एजुकेशन, फिशरीज, गुड गवर्नेंस , इंडस्ट्री, फाइनेंस जैसे विभागों की समीक्षा की जाएगी। हाल के दिनों में जब मुख्यमंत्री ने पूंजीगत व्यय को लेकर बैठक ली थी, तब उन्होंने जेम पोर्टल से होने वाली खरीदी में गड़बड़ी पर नाराजगी जाहिर की थी। मालूम चला है कि जेम पोर्टल को लेकर जो आंकड़े सरकार के पास आए हैं, वह चौंकाने वाले हैं। सरकार शासकीय खरीदी में पारदर्शिता को लेकर सख्त रुख अख्तियार करने के मूड में है। अफसरों ने सरकार की खूब फजीहत कराई है। 11 विभागों में ही खरीदी से जुड़ी 101 विसंगतियां पाई गई हैं। इनमें से 36 टेंडर को रद्द करने की नौबत आ गई और 41 टेंडर ऐसे रहे, जिन पर कोई फैसला नहीं लिया जा सका। ये देखकर सरकार का माथा गर्म है। कांफ्रेंस में जेम पोर्टल से खरीदी भी एक एजेंडा है, जिसकी समीक्षा होगी। इस कांफ्रेंस के बाकी के दिनों में एसपी और डीएफओ कांफ्रेंस भी होना है। राज्य की कानून व्यवस्था कटघरे में है। एसपी साहबों की करतूतों से सरकार बखूबी वाकिफ है। सरकार को मालूम है कि कौन,कब, कैसे और क्या काम कर रहा है। चर्चा है कि कांफ्रेंस में इसकी झलक सरकार दिखा सकती है। डीएफओ पहली बार इस तरह की कांफ्रेंस का हिस्सा है। सरकार की प्रायोरिटी बदल रही है। तौर तरीके बदल रहे हैं। उम्मीद ही की जा सकती है कि आने वाले दिनों में जमीन पर भी यह बदलाव साफ-साफ दिखाई दे दे। 

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मुंह का स्वाद

अफसरों के मुंह के स्वाद पर चर्चा भी एक लोकतांत्रिक बहस का मुद्दा बन जाती है। खैर, इस बार की चर्चा के केंद्र में है, कलेक्टर्स-एसपी कांफ्रेंस की कैटरिंग। पिछली दफे सर्किट हाउस में जब यह कांफ्रेंस हुई थी, तब अफसरों के खाने-पीने का जिम्मा एक फाइव स्टार होटल मेफेयर को सौंपा गया था। मलाई कोफ्ता, पनीर लबाबदार जैसे कई तरह के व्यंजन रखे गए थे। सरकार की सख्ती से मुरझाए अफसरों के चेहरों पर किस्म-किस्म के व्यंजनों ने चमक लाने का काम किया था। अबकी बार यह कांफ्रेंस मंत्रालय के पांचवें फ्लोर पर बने ऑडिटोरियम में हो रही है। जब यह तय हुआ कि कांफ्रेंस मंत्रालय में ही होगी, तब कांफ्रेंस में आने वाले कलेक्टर्स-एसपी के खाने-पीने के अरेंजमेंट पर भी बात हो गई। एक आला साहब ने पूछा कि पिछली बार यह जिम्मा किसे सौंपा गया था। उन्हें बताया गया कि मेफेयर को। एक पल की खामोशी के बाद उन्होंने झट से कहा, अफसरों को डांट फटकार के लिए बुला रहे हैं या फिर खाना खिलाने के लिए। अंतत: मंत्रालय के इंडियन कॉफी हाउस को खाना खिलाने का जिम्मा दे दिया गया। इस दफे ऑडिटोरियम के भीतर डांट सुनकर बाहर आए अफसरों के चेहरे की चमक बढ़ाने के लिए उन्हें उनका मनपसंद स्वाद नहीं मिलेगा। उन्हें प्रचलित सरकारी स्वाद से ही काम चलाना होगा। सरकार अपने अफसरों को पूरी तरह से सरकारी बनाना चाहती है। सरकार जानती है कि अफसरों के मुंह का स्वाद भी फाइव स्टार हो गया है।

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सुगबुगाहट फिर से…

यह खबर तैर रही है कि कलेक्टर्स-एसपी कांफ्रेंस के बाद साय सरकार सूबे का पूरा प्रशासनिक ढांचा ही बदल देगी। मंत्रालय में सचिवों से लेकर जिलों में कलेक्टर और एसपी तक बदलाव की जद में कई आएंगे। और इस बदलाव का सबसे बड़ा आधार परफॉर्मेंस होगा। हालांकि इसकी सुगबुगाहट कांफ्रेंस शेड्यूल करने के पहले से ही चल रही है। आला सूत्र इस बात की तस्दीक करते हैं कि इस बार लेटलतीफी नहीं होगी। तैयारी पूरी है। मुमकिन है कि इधर कांफ्रेंस खत्म हो और उधर सरकार तबादला आदेश जारी कर दे। सरकार आड़े तिरछे अफसरों को अब बिल्कुल भी बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है। कांफ्रेंस के पहले अफसरों की रिपोर्ट सरकार ने बुला रखी है। मगर असल बात यह भी है कि पॉलिटिकल रिकमंडेशन और पेमेंट सीट से आने वाले अफसरों का क्या? जब तक इस रास्ते को बंद नहीं किया जाएगा, मानकर चलिए कि प्रशासनिक महकमे में खोट तो रहेगी ही। अबकी बार सरकार को एक सख्त संदेश दे देना चाहिए। नो पॉलिटिकल रिकमंडेशन- नो पेमेंट सीट।