दिल्ली हाई कोर्ट(Delhi High Court) ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि अगर बहू अपने सास-ससुर की देखभाल करने में लापरवाही दिखाती है, तो इसे ‘क्रूरता’ माना जाएगा। कोर्ट ने कहा कि माता-पिता संयुक्त हिंदू परिवार का अभिन्न हिस्सा होते हैं और वैवाहिक जीवन में उनकी उपेक्षा संबंधों में तनाव और मानसिक प्रताड़ना को बढ़ा सकती है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि विवाह सिर्फ पति-पत्नी का ही नहीं, बल्कि दोनों परिवारों के बीच स्थापित होने वाला सामाजिक और नैतिक संबंध भी है। ऐसे में जीवनसाथी द्वारा माता-पिता के प्रति उदासीन या बेरुखा व्यवहार को कोर्ट ने वैवाहिक क्रूरता की श्रेणी में रखा है।

जस्टिस अनिल क्षत्रपाल और जस्टिस हरीश वैद्यनाथन शंकर की खंडपीठ ने सुनवाई के दौरान कहा कि भारतीय समाज में विवाह केवल दो व्यक्तियों का नहीं, बल्कि दो परिवारों का गठबंधन होता है। इसलिए एक जीवनसाथी से यह स्वाभाविक अपेक्षा की जाती है कि वह परिवार के बुज़ुर्गों और माता-पिता की देखभाल करे। कोर्ट ने मामले में पाया कि पत्नी को यह तक जानकारी नहीं थी कि उसकी सास चलने-फिरने में असमर्थ हैं और उनकी कूल्हे की सर्जरी हो चुकी है। अदालत ने इसे पत्नी की गंभीर लापरवाही और पारिवारिक जिम्मेदारियों के प्रति उदासीनता माना।

कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा कि यह एक स्वाभाविक और उचित अपेक्षा है कि विवाह के बाद एक जीवनसाथी घर के बुज़ुर्ग सदस्यों के स्वास्थ्य, गरिमा और सम्मान का ध्यान रखे। अदालत ने पाया कि अपीलकर्ता पत्नी ने अपने सास-ससुर की तरफ जानबूझकर उदासीनता और संवेदनहीन रवैया अपनाया, जबकि उनकी उम्र अधिक थी और स्वास्थ्य की स्थिति को विशेष सहानुभूति और देखभाल की आवश्यकता थी। अदालत ने कहा “जब परिवार के बुज़ुर्गों को सहारे और करुणा की जरूरत हो, तब उनकी अनदेखी को तुच्छ नहीं माना जा सकता। यह व्यवहार पति और उसके परिवार के लिए अनावश्यक पीड़ा का कारण बना, जो विवाह संबंधों के संदर्भ में ‘क्रूरता’ का एक महत्वपूर्ण पहलू है।”

दिल्ली हाई कोर्ट ने पत्नी की उस अपील को खारिज कर दिया है, जिसमें उसने पारिवारिक अदालत द्वारा पति को ‘क्रूरता’ के आधार पर दिए गए तलाक के आदेश को चुनौती दी थी। कोर्ट ने माना कि पत्नी का व्यवहार परिवार के बुज़ुर्गों के प्रति उपेक्षा और असंवेदनशीलता दर्शाता है, जो वैवाहिक संबंधों में ‘क्रूरता’ की श्रेणी में आता है।

मामले में दंपती की शादी मार्च 1990 में हुई थी और 1997 में उनका एक बेटा हुआ। पति ने आरोप लगाया था कि उसकी पत्नी संयुक्त परिवार में रहने को तैयार नहीं थी और अक्सर बिना अनुमति के वैवाहिक घर छोड़ देती थी। पति के अनुसार, पत्नी 2008 से वैवाहिक संबंधों से पूरी तरह दूरी बनाए हुए थी। पति ने यह भी आरोप लगाया कि पत्नी उन पर और उनके परिवार पर संपत्ति और घर अपने नाम ट्रांसफर करने का दबाव डालती थी।

रिकॉर्ड के अनुसार, पति ने वर्ष 2009 में पत्नी से तलाक की अर्जी दायर की थी। इसके बाद पत्नी ने पति और उसके परिवार के खिलाफ दहेज उत्पीड़न और घरेलू हिंसा सहित कई आपराधिक मामले दर्ज करा दिए। पारिवारिक अदालत ने माना था कि पत्नी द्वारा बदले की भावना से दर्ज कराई गई शिकायतें और लंबे समय तक वैवाहिक दायित्वों से इनकार करना, दोनों ही पति के लिए गंभीर मानसिक पीड़ा का कारण बने, जो मानसिक क्रूरता की श्रेणी में आता है। पत्नी ने पारिवारिक अदालत के फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती दी। उसका तर्क था कि निचली अदालत ने उन सबूतों पर भरोसा किया जो रिकॉर्ड में नहीं थे। दहेज उत्पीड़न और मारपीट के उसके आरोपों को नजरअंदाज किया गया। उसकी FIR बदले की भावना से नहीं, बल्कि सच पर आधारित थीं।

हालांकि, हाई कोर्ट ने पत्नी के इन दावों को अस्वीकार कर दिया। अदालत ने कहा कि “पति के खिलाफ लगातार आपराधिक मुकदमे दायर करना और वर्षों तक वैवाहिक संबंधों को निभाने से इनकार करना, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 के तहत स्पष्ट रूप से मानसिक क्रूरता है।”

कोर्ट ने कहा कि वैवाहिक अंतरंगता से लम्बे समय तक इनकार, पति के खिलाफ लगातार शिकायतें और एफआईआर दर्ज कराना, नाबालिग बच्चे को पिता से दूर रखना, और ससुराल के बुज़ुर्ग माता-पिता के प्रति उदासीनता व उपेक्षा—ये सभी क्रियाएं मिलकर यह दर्शाती हैं कि पत्नी ने अपने वैवाहिक दायित्वों की लगातार अनदेखी की। अदालत के अनुसार, इन व्यवहारों के कारण पति और उसके परिवार को गहरी भावनात्मक पीड़ा पहुँची और वैवाहिक संबंध इतने तनावपूर्ण और असहनीय हो गए कि आगे साथ रहना संभव नहीं रहा। इसीलिए, यह आचरण मानसिक क्रूरता की श्रेणी में आता है, जो हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1)(ia) के तहत तलाक का वैधानिक आधार है।

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