आशुतोष तिवारी, जगदलपुर। बस्तर की जमीन पर जन्मी कहानियां अक्सर सिर्फ दंतकथाओं और रिपोर्टों में सीमित रह जाती थीं, लेकिन इस बार बस्तर ने खुद अपनी कहानी कहने का फैसला किया है और उसी का परिणाम है छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘माटी’, जो शुक्रवार को प्रदेशभर में रिलीज होते ही चर्चा का केंद्र बन गई। जहां ज्यादातर फिल्में बस्तर को संघर्ष या हिंसा की एकतरफा तस्वीर में बांध देती हैं, वहीं ‘माटी’ पहली बार बस्तर को उसके अपने नजरिये से दुनिया के सामने रखती है उसके लोग, उसकी संस्कृति, उसकी संवेदनाएं और उसके भीतर पलती उम्मीदें।


रिपोर्टरों की नज़र से नहीं, बस्तर की नज़र से ‘माटी’ ने बदला देखने का तरीका
प्रदेशभर में रिलीज हुई ‘माटी’ का पहला शो जगदलपुर में पत्रकारों के लिए खास तौर पर रखा गया। लेकिन इस शो की सबसे बड़ी खासियत फिल्म नहीं, बल्कि वह नजरिया था जिसे पत्रकारों ने स्क्रीन पर देखा एक ऐसा बस्तर, जिसे वे रोज़ कवर तो करते हैं, पर पहली बार इतने जीवंत रूप में महसूस कर पाए। फिल्म मनोरंजन की परिभाषा को तोड़ते हुए बस्तर की मिट्टी में रची-बसी कहानियों को कैद करती है। घने जंगलों की सांसें, घाटियों में फैली खामोशी, गांवों की सरलता, और नक्सलवाद की छाया के बीच भी जीवन की जिद्द। ‘माटी’ बस्तर को किसी “समस्या क्षेत्र” की तरह नहीं दिखाती, बल्कि वहां की असली धड़कन लोगों का साहस और संबंधों की गर्माहट को उभारती है।

लोगों ने खुद अपनी कहानी जी, 1000 से ज्यादा स्थानीय कलाकारों की भागीदारी
फिल्म की असली ताकत है इसमें बस्तर के लोगों का शामिल होना। कोई एक्टिंग करके नहीं, बल्कि अपनी असली जिंदगी के अनुभवों के साथ। निर्माता-कथाकार सम्पत झा के अनुसार, माटी फिल्म नहीं, बस्तर की सामूहिक आवाज़ है। शुरुआत में नक्सलवाद के भय से लोग हिचकते थे, लेकिन बाद में पूरे 1000 से अधिक ग्रामीणों ने खुद को इस कहानी का हिस्सा बनाया और यही फिल्म की आत्मा है।
नक्सलवाद के बीच प्रेम और उम्मीद एक ऐसी कहानी जिसे बस्तर जीता है, निभाता नहीं
फिल्म में हिंसा, डर और संघर्ष की पृष्ठभूमि है, पर कहानी इनके इर्द-गिर्द नहीं घूमती। यह कहानी प्रेम, भरोसे, इंसानियत और उस जज्बे की है जो हर बस्तरवासी को मुश्किलों के बीच भी आगे बढ़ना सिखाता है। निर्देशक अविनाश प्रसाद ने वर्षों की जमीनी समझ के साथ दृश्यो को इतना असली बनाया कि कई पल डॉक्यूमेंट्री की तरह महसूस होते हैं लेकिन भावनाओं की गहराई पूरी तरह सिनेमाई है।
बस्तर के असली लोकेशन कोई सेट नहीं, कोई स्क्रीन ग्रीन नहीं
फिल्म की शूटिंग बस्तर के नक्सल प्रभावित इलाकों,घने जंगलों, नदी-घाटियों, ऊँचे पहाड़ों, और दूरस्थ गांवों में की गई है। वह प्राकृतिक सौंदर्य, जो अक्सर लोगों की पहुंच से दूर रह जाता है, इस बार बड़े पर्दे पर बस्तर के गौरव की तरह चमकता दिखता है।
स्थानीय कलाकारों की मजबूत उपस्थिति
मुख्य भूमिकाओं में महेन्द्र ठाकुर (भीमा), भूमिका साहा (उर्मिला), भूमिका निषाद, राजेश मोहंती, आशुतोष तिवारी, दीपक नाथन, संतोष दानी, निर्मल सिंह राजपूत, जितेन्द्र ठाकुर, नीलिमा, लावण्या मानिकपुरी, पूर्णिमा सरोज, श्रीधर राव, बादशाह खान, शिव शंकर पिल्ले जैसे कलाकारों ने बस्तर की आत्मा को स्क्रीन पर उतार दिया।
माटी सिर्फ सिनेमाघर की फिल्म नहीं, बस्तर की दस्तावेज़ी पहचान बन गई है
फिल्म देख चुके पत्रकारों ने कहा कि ‘माटी’ बस्तर को देखने का नजरिया बदल देती है। यह फिल्म यह साबित करती है कि किसी जगह की कहानी वही लोग सबसे अच्छे से कह सकते हैं, जो खुद उस जमीन की खुशबू, उसकी तकलीफ, और उसकी उम्मीदों को रोज़ जीते हैं।
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