Naxal Attack in Chhattisgarh:  अमित पांडे. डोंगरगढ़. डोंगरगढ़ और बालाघाट के बीच फैले घने जंगल एक बार फिर गोलियों की आवाज़ से कांप उठे. ठीक उसी समय जब देशभर मोस्ट वांटेड नक्सली कमांडर माडवी हिडमा के मारे जाने की खबर ने सुरक्षा एजेंसियों को बड़ी राहत दी, उसी के अगले ही दिन डोंगरगढ़ के सीमावर्ती जंगलों में मध्यप्रदेश–छत्तीसगढ़–महाराष्ट्र की संयुक्त टीम और नक्सलियों के बीच भीषण मुठभेड़ हो गई. इस मुठभेड़ में मध्यप्रदेश हॉकफोर्स के जांबाज निरीक्षक आशीष शर्मा शहीद हो गए. घटनाओं का यह सटीक समय-क्रम सवाल खड़ा करता है कि क्या यह सिर्फ एक संयोग था या हिडमा की मौत के बाद नक्सलियों की प्रतिशोधी प्रतिक्रिया?

 हिडमा बस्तर से लेकर आंध्र और महाराष्ट्र की सीमाओं तक नक्सलियों का सबसे बड़ा और हिंसक चेहरा माना जाता था. उसके खात्मे से संगठन के भीतर भारी हलचल मची थी. कई शीर्ष कमांडर हताश थे और इन इलाकों में उनकी गतिविधियां दबाव में आ गई थीं. ऐसे समय में नक्सली आम तौर पर सीमावर्ती क्षेत्रों में अचानक वारदात कर अपनी उपस्थिति और शक्ति का प्रदर्शन करते हैं. डोंगरगढ़–बालाघाट का जंगल उनके लिए वर्षों से एक फॉलबैक जोन रहा हैं जहां दबाव बढ़ते ही नक्सली छिपते हैं, रिग्रुप करते हैं और मौका मिलते ही सुरक्षा बलों पर हमला कर देते हैं. यहां भी ऐसा ही कुछ हुआ.

18 और 19 नवंबर की दरमियानी रात कुरझेर–बोरतालाब के जंगल में सर्चिंग के दौरान निरीक्षक आशीष शर्मा की पार्टी का सामना सशस्त्र नक्सलियों से हो गया. नक्सलियों ने अचानक गोलियां चलानी शुरू कर दीं, लेकिन आशीष शर्मा ने अग्रिम पंक्ति में रहकर अपनी टीम का मनोबल संभाला और जवाबी फायरिंग का नेतृत्व किया. उनकी कमान में सुरक्षा बलों ने नक्सलियों को पीछे धकेल दिया. नक्सलियों की हड़बड़ी इतनी थी कि वे कैंप, राशन, बैग और साहित्य छोड़कर जंगल की ओर भाग गए. यह साफ संकेत था कि सुरक्षा बलों का दबाव उन पर पहले से ही बढ़ा हुआ था.

 आशीष शर्मा का नाम नक्सलवादियों के लिए नया नहीं था. वे हॉकफोर्स के उन तेजतर्रार अधिकारियों में थे जिनकी कार्रवाइयों ने नक्सली नेटवर्क को कई बार तोड़ा. हर्राटोला की मुठभेड़ में उन्होंने 14 लाख इनामी नक्सली रूपेश उर्फ़ हुंगा डोडी को मार गिराया था. कदला की मुठभेड़ में 28 लाख की संयुक्त इनामी एसीएम सुनीता और सरिता को ढेर किया था. रौंदा के जंगलों में 62 लाख कुल इनामी नक्सलियों- आशा, रजनीता और सरिता को खत्म करने में उन्होंने निर्णायक भूमिका निभाई थी. उनकी यही उपलब्धियां थीं कि सुरक्षा बलों में उनका नाम सम्मान से लिया जाता था और नक्सली संगठन उन्हें खुली चुनौती मानते थे.

कहानी का सबसे मार्मिक हिस्सा यह हैं कि मुठभेड़ के दौरान गंभीर रूप से घायल होने के बाद भी आशीष शर्मा ने अपनी टीम को निर्देश दिए, तब तक गोलियां चलती रहीं. उनकी टीम उन्हें तुरंत जंगल से बाहर लेकर आईं, अस्पताल के लिए ग्रीन कॉरिडोर बनाया गया, एयरलिफ्ट तक की व्यवस्था की गई, लेकिन डॉक्टरों ने उन्हें बचा नहीं सके. उनकी शहादत ने पूरे प्रदेश को शोक में डूबो दिया, पर साथ ही यह भी साबित किया कि उनके जैसे अधिकारी ही इस कठिन इलाके में नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई की रीढ़ हैं. हिडमा के खात्मे और आशीष शर्मा की शहादत के बीच का समय और परिस्थितियों को देखकर ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि कमज़ोर होती पकड़ के बीच नक्सलियों ने प्रतिशोध का रास्ता चुना. जिस तरह निरीक्षक आशीष शर्मा नक्सलियों के खिलाफ कई बड़ी सफलताओं की वजह बने थे, यह मुमकिन है कि नक्सली इकाइयों ने उन्हें निशाने पर लेने की कोशिश की हो. हालांकि आधिकारिक तौर पर इसको प्रतिशोध कहना जल्दबाज़ी होगी, लेकिन घटनाओं का क्रम और नक्सली रणनीति, दोनों एक संभावित संबंध की ओर इशारा जरूर करते हैं.