Supreme Court Hearing On Deadline For Governor and President: राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए विधेयकों पर मंजूरी की समयसीमा तय करने पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुना दिया है। देश के शीर्ष न्यायालय ने बड़ा फैसला सुनाते हुए कहा कि अदालतें राज्यपाल और राष्ट्रपति को समयसीमा में नहीं बांध सकती। लेकिन बिल पर बिना कारण देरी होगी तो दखल देंगे। कोर्ट ने कहा कि हमें नहीं लगता कि गवर्नरों के पास विधानसभाओं से पास बिलों (विधेयकों) पर रोक लगाने की पूरी पावर है। इससे पहले बेंच ने 10 दिन मामला सुनने के बाद 11 सितंबर को इस पर अपनी राय सुरक्षित रख ली थी।
सुनवाई के दौरान अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्र सरकार का पक्ष रखा। वहीं, विपक्ष शासित राज्य तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, पंजाब और हिमाचल प्रदेश ने केंद्र का विरोध किया।
मुख्य न्यायाधीश भूषण रामकृष्ण गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी एस नरसिम्हा और जस्टिस ए एस चंदुरकर की बेंच ने कहा कि राज्यपाल पर कोई समय-सीमा नहीं लगा सकता। सिवाय इसके कि वह उन्हें एक उचित अवधि में निर्णय लेने के लिए कहे। सीजेआई ने कहा कि समय-सीमा लागू करना संविधान द्वारा इतनी सावधानी से संरक्षित इस लचीलेपन के बिल्कुल विपरीत होगा। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने माना कि राज्यपाल राज्य विधेयकों पर अनिश्चित काल तक रोक नहीं लगा सकते।
सुनवाई के दौरान कोर्ट ने क्या-क्या कहा?
कोर्ट ने गुरुवार (20 नवंबर, 2025) को प्रेजिडेंशियल रेफरेंस पर अपनी राय देते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200/201 के तहत कोर्ट बिल पर फैसला लेने के लिए राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा निर्धारित नहीं कर सकता है। उन्होंने कहा कि विधेयक पर फैसला लेने के लिए उन्हें समय सीमा में बांधना संविधान की भावना के विपरीत होगा। कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 200 के तहत व्यवस्था है कि राज्यपाल विधेयक को मंजूरी दे सकते हैं, विधानसभा को दोबारा भेज सकते हैं या राष्ट्रपति को भेज सकते हैं, लेकिन अगर विधानसभा किसी बिल को वापस भेजे तो राज्यपाल को उसे मंजूरी देनी होती है।
बेंच ने कहा कि अनुच्छेद 200 के तहत व्यवस्था है कि राज्यपाल विधेयक को मंजूरी दे सकते हैं, विधानसभा को दोबारा भेज सकते हैं या राष्ट्रपति को भेज सकते हैं। अगर विधानसभा किसी बिल को वापस भेजे तो राज्यपाल को उसे मंजूरी देनी होती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के फैसले में कोर्ट दखल नहीं दे सकता, लेकिन अगर वह अनिश्चित समय तक विधेयक को अपने पास लंबित रखें तो यह कोर्ट के सीमित दखल का आधार बन सकता है। कोर्ट ने यह भी कहा है कि राज्यपाल या राष्ट्रपति के पास लंबित विधेयक पर कोर्ट विचार नहीं कर सकता। किसी कानून के बनने के बाद ही कोर्ट उस पर विचार कर सकता है।
राज्यपाल की भूमिका को टेकओवर नहीं कर सकते
सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह माना गया कि यदि राज्यपाल विधेयक पर अपनी स्वीकृति नहीं दे रहे हैं, तो उसे अनिवार्य रूप से विधानसभा को वापस भेजा जाना चाहिए। सीजेआई ने कहा कि जब राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से बाध्य होता है तो हमारी राय से पहले, दोनों पक्ष राज्यपाल के विवेक पर एक ही निर्णय पर भरोसा करते हैं। नेबाम रेबिया, शमशेर सिंह, मध्य प्रदेश पुलिस प्रतिष्ठान फैसले में हमारा विकल्प यह है कि सामान्यतः राज्यपाल सहायता और सलाह से कार्य करते हैं और संविधान में प्रावधान है कि कुछ मामलों में वह विवेक का प्रयोग कर सकते हैं। यह स्पष्ट रूप से या परोक्ष रूप से प्रदान किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अदालत राज्यपाल की भूमिका को टेकओवर नहीं कर सकती। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने माना कि राज्यपाल राज्य विधेयकों पर अनिश्चित काल तक रोक नहीं लगा सकते, लेकिन उसने राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए कोई समयसीमा निर्धारित करने से इनकार कर दिया और कहा कि ऐसा करना शक्तियों के पृथक्करण के विरुद्ध होगा।
तमिलनाडु से शुरू हुआ था विवाद
यह मामला तमिलनाडु गवर्नर और राज्य सरकार के बीच हुए विवाद से उठा था। जहां गवर्नर से राज्य सरकार के बिल रोककर रखे थे। सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को आदेश दिया कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है। इसी फैसले में कहा था कि राज्यपाल की ओर से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा। यह ऑर्डर 11 अप्रैल को सामने आया था। इसके बाद राष्ट्रपति ने मामले में सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी और 14 सवाल पूछे थे।
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