US Reliance on Chinese AI Talent: जून में जब मार्क जकरबर्ग ने मेटा की नई सुपर इंटेलिजेंस लैब की घोषणा की, तो इसे अमेरिका की टेक महाशक्ति का अगला बड़ा कदम बताया गया. बयान शानदार था, ऐसी मशीनें बनने जा रही थीं जो इंसानी दिमाग से भी ज्यादा सक्षम हों. लेकिन इस महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट का एक पहलू चुपचाप दबा दिया गया, और वही पहलू अब अमेरिकी रणनीति पर सबसे बड़ा सवाल खड़ा कर रहा है.
न्यूयॉर्क टाइम्स के हाथ लगे इंटरनल मेमो में खुलासा हुआ कि इस टीम में शामिल सभी 11 वैज्ञानिक विदेशी मूल के हैं, एक भी अमेरिकी नहीं. इनमें से 7 चीन में जन्मे, जबकि बाकी भारत, ब्रिटेन, साउथ अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया से आते हैं. अमेरिकी एजेंसियां वर्षों से चीन को AI के लिए “सबसे बड़ा खतरा” बताती रही हैं. लेकिन यह रिपोर्ट दिखाती है कि अमेरिका की AI मशीनरी चलाने वाले असल में वही लोग हैं जिन्हें वाशिंगटन राजनीतिक मंचों पर खतरा घोषित करता रहा है.
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वो सच्चाई जिसे सिलिकॉन वैली छिपाना चाहती है
मेटा के अंदर एक अनकही परंपरा है, नए रिसर्चर्स को दो भाषाएँ सीखनी पड़ती हैं. पहली कंपनी की प्रोग्रामिंग लैंग्वेज Hack, और दूसरी मंदारिन. वजह साफ है, मेटा की अधिकांश AI लैब्स में चीनी वैज्ञानिकों का वर्चस्व है.
यह निर्भरता कोई छोटी बात नहीं है. 2018 के बाद से मेटा ने कम से कम 28 रिसर्च पेपर चीनी संस्थानों के साथ मिलकर लिखे. सिर्फ मेटा ही नहीं गूगल, ऐप्पल, इंटेल, सेल्सफोर्स जैसे दिग्गज भी चीनी विशेषज्ञों पर लगातार निर्भर हैं. माइक्रोसॉफ्ट तो सबसे आगे, 92 संयुक्त AI पेपर, चीन के साथ मिलकर.
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ट्रम्प की सख्ती के बावजूद चीनी टैलेंट क्यों टिके रहे
ट्रम्प प्रशासन ने 2017 के बाद से इमिग्रेशन को लेकर कड़ा रुख अपना लिया. सिलिकॉन वैली की कंपनियों में भी चीन के प्रति नाराजगी बढ़ी. इसके बावजूद एक तथ्य अडिग रहा, ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत वही चीनी शोधकर्ता बने रहे.
पॉलसन इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया के शीर्ष AI वैज्ञानिकों में से एक-तिहाई चीन से आते हैं, और इनमें से ज्यादातर अमेरिकी संस्थानों में काम भी कर रहे हैं.
कार्नेगी एंडोमेंट के अध्ययन में पाया गया कि 2019 में अमेरिका में मौजूद शीर्ष 100 चीनी वैज्ञानिकों में से 87 आज भी वहीं काम कर रहे हैं. यानी ChatGPT के आने से पहले, उसके आगमन के दौरान, और AI बूम के बीच, इन वैज्ञानिकों ने अमेरिका की रीढ़ नहीं छोड़ी. नीतियों ने उन्हें रोकने की कोशिश की, लेकिन लैब्स ने उन्हें जाने नहीं दिया.
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AI की रेस: जहां दुश्मन भी साझेदार बन जाते हैं (US Reliance on Chinese AI Talent)
अमेरिका और चीन आज दुनिया की सबसे तेज AI हथियार-दौड़ में उलझे हैं. लेकिन शोध के मोर्चे पर दोनों का सहयोग दुनिया में सबसे ज्यादा है. AlphaXiv नाम की कंपनी के रिसर्च में खुलासा हुआ कि 2018 से दोनों देशों ने मिलकर जितना AI रिसर्च किया, उतना कोई दो देश कभी नहीं कर पाए.
उधर, सिलिकॉन वैली में लगातार डर बढ़ रहा है कि चीनी कर्मचारी टेक्नोलॉजी चोरी कर चीन सरकार को सौंप सकते हैं. जैसे 2023 में OpenAI के इंटरनल मैसेजिंग सिस्टम से एक हैकर की ओर से डेटा चोरी. लेकिन AI विशेषज्ञ कहते हैं खतरे हैं, लेकिन फायदे उससे कई गुना ज्यादा हैं.
चीन पर पाबंदियां अमेरिकियों को ही पीछे कर सकती हैं
जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी की AI विशेषज्ञ हेलेन टोनर का कहना है कि अगर अमेरिका ने चीनी प्रतिभाओं पर और सख्ती की, तो नुकसान चीन का नहीं, खुद अमेरिका का होगा. उनके अनुसार, “AI की वैश्विक दौड़ में चीनी शोधकर्ताओं के बिना सिलिकॉन वैली टिक ही नहीं पाएगी.” क्योंकि सच यही है, AI की इस सुपरपावर रेस के केंद्र में चीन के वैज्ञानिक हैं. मेटा की AI लैब इसका सिर्फ एक ताजा उदाहरण है.
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