सुप्रीम कोर्ट(Supreme Court) ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय (I&B) को निर्देश दिया है कि वह सोशल मीडिया पर अपलोड होने वाले यूज़र जनरेटेड कंटेंट (UGC) के लिए एक प्रि-स्क्रीनिंग मैकेनिज्म का मसौदा तैयार करे। अदालत ने कहा कि कई बार ऐसा कंटेंट बेहद तेज़ी से वायरल हो जाता है और प्राधिकरणों द्वारा हटाए जाने से पहले ही समाज में अशांति और भ्रम पैदा कर देता है। ऐसे में केवल पोस्ट-फैक्टो (अपलोड होने के बाद की) कार्रवाई पर्याप्त नहीं मानी जा सकती।

इस मामले की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ कर रही थी। पीठ ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, लेकिन यह पूर्णतः निरंकुश अधिकार नहीं है; यह अमेरिका के फर्स्ट अमेंडमेंट की तरह ‘एब्सोल्यूट राइट’ नहीं माना जाता। अदालत ने यह भी टिप्पणी की कि यूज़र-जनरेटेड कंटेंट के मामले में मौजूदा सेल्फ-रेगुलेटरी कोड प्रभावी नहीं हैं। यदि कोई राष्ट्र-विरोधी या संवेदनशील कंटेंट अपलोड हो जाता है, तो सरकारी नोटिस और हटाने के आदेश में एक–दो दिन लग जाते हैं, और इस दौरान वह वायरल होकर समाज में तनाव पैदा कर सकता है।

जस्टिस सूर्यकांत की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि अदालत किसी भी ऐसे तंत्र को मंजूरी नहीं देगी जो अभिव्यक्ति को दबाए, लेकिन एक “यथोचित निवारक व्यवस्था” ज़रूरी है। कोर्ट ने इस क्षेत्र में मौजूद कानूनी शून्यता की ओर भी संकेत दिया और कहा कि इसे भरना आवश्यक है। पीठ ने यह भी माना कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के माध्यम से कंटेंट क्यूरेशन की व्यापक संभावनाएँ मौजूद हैं, क्योंकि कई बार शैक्षणिक दिखने वाला कंटेंट भी अश्लील, घृणास्पद या हानिकारक तत्व समेटे हो सकता है।

 ‘एंटी-नेशनल’ शब्द पर बहस

सुनवाई के दौरान अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने ‘एंटी-नेशनल’ शब्द के उपयोग पर आपत्ति जताई। उन्होंने दलील दी कि यह शब्द अक्सर चुनिंदा और व्यक्तिपरक तरीके से इस्तेमाल किया जाता है। उन्होंने पूछा, “क्या किसी क्षेत्रीय विवाद पर चर्चा करना भी राष्ट्र-विरोधी माना जाएगा?” इस पर CJI सूर्यकांत ने उदाहरण देते हुए कहा कि यदि कोई व्यक्ति सोशल मीडिया पर भारत के किसी हिस्से को पड़ोसी देश का बताकर वीडियो पोस्ट कर दे, तो क्या यह राष्ट्र-विरोधी नहीं होगा? भूषण ने इसका जवाब देते हुए कहा कि सिक्किम के भारत में विलय पर सवाल उठाना एक विचार या दृष्टिकोण हो सकता है, इसे राष्ट्र-विरोधी नहीं कहा जा सकता। इसी तरह चीन के दावों पर चर्चा करना भी राष्ट्र-विरोधी नहीं है।

 ‘वायरल होने से पहले रोकथाम जरूरी’

पीठ ने सुनवाई के दौरान यह भी बताया कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के समय एक व्यक्ति ने सोशल मीडिया पर पाकिस्तान समर्थक वीडियो पोस्ट किया था। जब मामला अदालत में पहुंचा, तो उसने कहा कि उसने एक घंटे के भीतर वीडियो हटा दिया था। अदालत ने इस पर टिप्पणी की कि वर्तमान दौर में एक घंटे काफी होता है सामग्री के वायरल होने के लिए। पीठ ने कहा कि मौजूदा कानून केवल अपलोड होने के बाद कार्रवाई की अनुमति देता है, जबकि आवश्यकता ऐसे निवारक तंत्र की है जो गलत सूचना, दुष्प्रचार या भड़काऊ कंटेंट को प्रसारित होने से पहले ही रोक सके। वर्तमान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जो अपलोडिंग के स्तर पर ही हस्तक्षेप कर सके।

सुनवाई के दौरान OTT और ब्रॉडकास्टर संगठनों ने तर्क दिया कि उनके पास पहले से ही सेल्फ-रेगुलेशन कोड मौजूद हैं और प्रि-सेंसरशिप की कोई आवश्यकता नहीं है। इस पर अदालत ने प्रश्न किया कि “यदि व्यवस्था इतनी प्रभावी है, तो हानिकारक सामग्री बार-बार सोशल मीडिया पर कैसे दिख रही है?” पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि न तो सरकार को यह शक्ति दी जा सकती है कि वह अकेले तय करे कि कौन-सी सामग्री हानिकारक है, और न ही डिजिटल प्लेटफॉर्म स्वयं यह निर्णय लेने के लिए पर्याप्त रूप से निष्पक्ष माने जा सकते हैं। CJI ने दोहराया कि सरकार के विरुद्ध बोलना राष्ट्र-विरोधी नहीं है, यह लोकतंत्र का अधिकार है। समस्या उन सामग्रियों की है जो वायरल होकर समाज में अशांति फैलाती हैं।

सरकार को 4 सप्ताह में मसौदा तैयार करने का निर्देश

अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत को बताया कि मंत्रालय चार सप्ताह में ड्राफ्ट तैयार कर सार्वजनिक सुझाव लेगा। कोर्ट ने निर्देश दिया कि मसौदा तैयार करते समय डोमेन विशेषज्ञों, न्यायविदों और मीडिया पेशेवरों की मदद ली जाए। सुप्रीम कोर्ट मसौदा तंत्र और प्राप्त सार्वजनिक सुझावों पर विचार करने के बाद इस मुद्दे पर आगे की सुनवाई करेगा।

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