रायपुर- छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कोरोना वायरस से बचने इस्तेमाल किए जा रहे शब्द ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की जगह ‘फिजिकल डिस्टेंसिंग’ को अपनाए जाने की वकालत की है. उन्होंने कहा है कि कोरोना की वजह से ही देश में लाॅकडाउन है, और इस प्रकिया में सोशल डिस्टेंसिंग की वकालत किया गया है, लेकिन अब हमे इस शब्द से हटकर सारा जोर फिजिकल डिस्टेंसिंग पर लगाना होगा. उन्होंने कहा कि लाकडाउन एक निर्देश हैं, और इसे हटाना एक प्रकिया है जिसको संवेदनशीलता, संकल्प और सावधानी के साथ पालन करना होता है, उन्होंने कहा कि कोरोना से लड़ने के लिए हमे जीवन और जीविका के बीच सावधान और संतुलित कदम उठाने की जरूरत है. इस कदम को उठाने के पहले मानसिक तैयारी जरूरी है. इस प्रकिया में हमें अपने दिमाग, अपने जेहन से सोशल डिस्टेंसिंग जैसे शब्दों को हटाना होगा और फिजिकल डिस्टेंसिंग यानी शारीरिक दूरी जैसे शब्दों पर आना होगा. बघेल मानते हैं कि यह बदलाव उन भयजनित समाजिक दूरियों को कम करेगा, जिनके शिकार पलायन से लौटे एवम् काम पर वापस आए मजदूर एवं नियमित छोटे व्यवसाय के कामगार हो सकते हैं. मुख्यमंत्री के इस बयान पर बुद्धिजीवियों, समाजशास्त्रियों के एक बड़े वर्ग ने अपना समर्थन किया है. 

बीते हफ्ते डब्ल्यूएचओ ने भी सोशल डिस्टेंसिंग की जगह फिजिकल डिस्टेंसिंग शब्द इस्तेमाल करने की बात कही है.  प्रेस रिलीज जारी करते हुए डब्ल्यूएचओ की महामारी विशेषज्ञ मारिया वान करखोव के हवाले से कहा गया था कि ‘सोशल कनेक्शन के लिए जरूरी नहीं है कि लोग एक ही जगह पर हों, वे तकनीक के जरिए भी जुड़े रह सकते हैं. इसीलिए हमने इस शब्द में बदलाव किया है ताकि लोग यह समझें कि उन्हें एक-दूसरे से संपर्क तोड़ने की नहीं बल्कि केवल शारीरिक तौर पर दूर रहने की जरूरत है.’ समाज शास्त्रियों का मानना है कि भारत की चेतना में सोशल डिस्टेंसिंग जैसे शब्दों के अलग मायने लिए जाते हैं. यह शब्द लंबे समय से सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व बनाए रखने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है. भेदभाव और दूरी बनाए रखने के साथ अस्पृश्यता को अमल में लाने के तौर-तरीकों पर इसका इस्तेमाल होता रहा है. 
 
वेबसाइट सत्याग्रह ने अमेरिका की नार्थ इस्टर्न यूनिवर्सिटी में पाॅलिटिकल साइंस और पब्लिक पाॅलिसी के प्रोफेसर डेनियल आल्ड्रिच के युद्ध, आपदा और महामारियों से उबरने में सामाजिक संबंधों की भूमिका पर लिखे एक शोध पत्र का हवाला देते हुए लिखा है कि ‘आपातकाल में उन लोगों के बचने की संभावना ज्यादा होती है जो सामाजिक तौर पर सक्रिय होते हैं.