मनोज त्रिवेदी– दस साल पहले एक फ़िल्म आयी थी चायनागेट इसके विलेन जागीरा का एक डाइयलॉग बड़ा चर्चित हुआ “ हम से लड़ने की हिम्मत तो जुटा लोगे लेकिन जागीरा का कमीनापन कहाँ से लाओगे” इस बात को उल्टा करें और समझे कि आज का वेब और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, प्रिंट मीडीया को रिप्लेस करने का मौक़ा तो पा गया है लेकिन प्रिंट के साथ दशकों पुरानी स्थापित विश्वसनीयता कहाँ से ला पाएगा। तक़रीबन 407 मिलियन पाठक संख्या के 1.25 लाख अख़बार पूरे देश में है, जिसमें सबसे बड़ी हिस्सेदारी प्रमुख 10 अखबारो की हैं। भारत के तीन अख़बार विश्व के टॉप 15 अखबारो मे शामिल है।
समाचार के इस माध्यम को कोरोना काल में ग्रहण लगा है, ये आंशिक ग्रहण है या पूर्ण ये तो वक़्त बताएगा । लाक्डाउन के दौरान समाचारों के प्रवाह में इलेक्ट्रॉनिक, वेब माध्यमों ने लोगों को मज़बूर कर दिया टेक्नॉलोजी के साथ अप्डेट होने के लिए।
समाचार, संवाद, मनोरंजन सब अब उँगलियो के इशारे से चल रहे है,बड़ा सवाल क्या होगा प्रिंट मीडिया का.? क्या अख़बार अब हर सुबह का साथी ठीक वैसे ही रह पाएगा .?इतनी बड़ी प्रिंट मीडिया इंडस्ट्री का भविष्य क्या होगा, राज्य स्तरीय अखबारो और बड़े राष्ट्रीय अखबारो का क्या होगा.! एक अख़बार को दरवाज़े समय पर पहुँचाने वाली बड़ी शृंखला जिसमें हॉकर, एजेंट, सरकुलेशन, मार्केटिंग, मशीन मैन, पत्रकार इन सबका भविष्य क्या होगा
समझना होगा, कि हम जिस दाम में अख़बार ख़रीदते है वह उसकी लागत मूल्य की चौथाई भी नही होती, मसलन 3-4 rरुपए मूल्य का अख़बार को तैयार करने मे 8-10 रुपए का वास्तविक खर्च आता है,।3-4 रुपए में अख़बार सिर्फ़ इसलिए आप तक पहुँच पा रहें हैं क्योंकि बाकि का खर्च यें अख़बार में प्रकाशित विज्ञापनो से मैनेज कर लेते है, ज़ाहिर सी बात है यदि बाज़ार में पैसों की कमी से उत्पादनो,ग्राहकों की कमी होगी और ऐसे में अखबारो मे विज्ञापन कम हो सकते है,या कम विज्ञापन खर्च के अन्य विकल्पों की ओर जा सकते हैं अगर ऐसा लम्बे समय तक होता रहा तो तो प्रिंट-मीडीया कम्पनियाँ अपना खर्च उठा नहीं पाएँगी, कॉस्ट कटिंग, पेजेस की कम संख्या, कर्मचारियों की छटनी होना शुरू हो सकती है।
पोस्ट कोरोना काल में प्रिंट मीडिया हाउस को अपनी विश्वसनीयता को ही USP बनाना चाहिए साथ में अपने पाठक की अख़बार से बांडिंग के इतिहास को प्रमणिकता देकर काम करना होगा, अख़बार के विज्ञापनदाता, जिसे सामान्य बोलचाल में क्लाइयंट और इन्हें अख़बार से जोड़े रखने वाली विज्ञापन एजेंसियों के बीच इसी भरोसे को विस्तारित कर के ले जाना होगा, अब क्लाइयंट के व्यवसायिक उद्देश्य को अपना गोल बनाने का वक़्त है, उसके व्यापारिक उद्देश्यों के सहायक के तौर पर ना हो कर उसके साथी के रूप मे बाज़ार मे जाना होगा,
बड़ी प्रसार संख्या के मीडिया हाउस को अपने पाठकों की संख्या बरकरार रखने की चुनौती रहेगी कोरोना दौर में वास्तविक प्रसार की गिरती संख्या को पोस्ट कोरोना काल में बड़ी चुनौती होगी
अपने पाठकों, विज्ञापनदाताओं, एजेन्सी, क्लाइयंट, तक इन्हें वन टू वन जाना पड़ेगा, और उनके अपने सर्विस, क्लाइयंट और प्रॉफ़िटेंबिलीटी को अपने लक्ष्य में तब्दील करना पड़ेगा, अपनी टीम को शॉर्ट टर्म अब्जेक्टिव के लिए तैयार करना चाहिए, हर विभाग के प्रत्येक कर्मचारी को अपने कार्य के अतिरिक्त ज़िम्मेदारी सौपनी पड़ेगी और उसे स्पष्ट बताना पड़ेगा कि वह कितना महत्वपूर्ण है।
बुरे समय में नौकरी जाने का डर सबको है, इस डर को उनकी ताक़त बना कर अतिरिक्त ज़िम्मेदारी दे कर उसे,संस्थान के उद्देश्य का हिस्सा बनाने का ऑफ़र देना होगा, डर के आगे,जीत के जश्न मनाने की प्रेरणा उसे अतिरिक्त ऊर्जा देगी और प्रिंट मीडिया को लगे कोरोना ग्रहण से निबटा जा सकेगा । लड़ने की हिम्मत के साथ भरोसे की विरासत ही जीत का रास्ता तय करेगी –
ये लेखक के निजी विचार है
मनोज त्रिवेदी- नवभारत के CEO एवम् दैनिक भास्कर- नईदुनिया के GM रह चुके हैं।