इस्लामाबाद। पाकिस्तान में एक बार फिर छद्म तरीके से ही सही लेकिन जनता द्वारा चुनी हुई सरकार पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं. पहले से ही मुसीबतों से जूझ रहे पाकिस्तान में कोरोना लॉकडाउन के दौरान प्रधानमंत्री इमरान खान की लोकप्रियता निचले पायदान पर पहुंच गई है. ऐसे में मौका देख सेना ने सरकारी संस्थानों पर अपना कब्जा जमाना शुरू कर दिया है.

पाकिस्तान में वर्तमान में दर्जनभर से ज्यादा पूर्व और वर्तमान सैन्य अधिकारी बड़े सरकारी पदों पर अपना कब्जा जमाए हुए हैं. इनमें से देश के नामी सरकारी विमानन कंपनी पीआईए, विद्युत नियामक और कोरोना संकटकाल में महत्वपूर्ण हुए राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान पर सैन्य अधिकारी काबिज हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि इन तीनों जगहों पर बीते दो महीने के दौरान नियुक्ति की गई है.

सेना का यह कदम उन लोगों के लिए काफी निराशा भरा है, जिन्होंने वर्ष 2018 में पाकिस्तान तहरीके इंसाफ याने पीटीआई के मुखिया इमरान खान के ‘नया पाकिस्तान’ नारे को हकीकत समझते हुए वोट देकर प्रधानमंत्री बनाया था. लेकिन बढ़ती महंगाई, बढ़ती गरीबी और सरकारी अमलों में भ्रष्टाचार ने उनकी रही-सही उम्मीदों पर पानी फेर दिया.

कोरोना संकट में हर जगह नजर आ रही हरी वर्दी

दुनिया के अन्य मुल्कों की तरह जब से पाकिस्तान में कोरोना वायरस का खतरा बढ़ा है, तब से हरी वर्दी वाले सेना के अधिकारी और जवान अस्पताल से लेकर मंत्रालयों तक नजर आने लगे हैं. सेना के बड़े अधिकारी कोरोना के खिलाफ लड़ाई में सरकार के सलाहकार की भूमिका में हैं.

मंत्रिमंडल में सेना के वफादार

यही नहीं चीन के सहयोग से चल रही पाकिस्तान के महत्वकांक्षी परियोजना सीपेक को अमल में लाने का भी दारोमदार सेना के कंधों पर आ गया है. इमरान खान के सलाहकार सेना के सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल असीम सलीम बाजवा इसकी निगरानी कर रहे हैं. इसके अलावा इमरान के मंत्रिमंडल में 12 ऐसे चेहरे हैं, जो सेना के वफादार हैं.

आगे इमरान खान के लिए और खतरा

जानकार मानते हैं कि आने वाले वक्त में इमरान खान की लोकप्रियता और कम होने के साथ सेना का सरकारी संस्थानों पर कब्जा और मजबूर होगा. देश की आर्थिक व्यवस्था का कोरोना संकट में वैसे ही महज 1.5 प्रतिशत की दर से आगे बढ़ने का अनुमान है, ऐसे में इमरान खान की मुसीबत और बढ़ेगी.

लोकतंत्र पर फिर पड़ेगी चोट

वाशिंगटन डीसी स्थित द विल्सन सेंटर में दक्षिण एशिया के मामलों के जानकार मिशेल कुग्लमेन कहते हैं कि बहुत से लोकतंत्र सरकार में उच्च पदों पर सेना के सेवानिवृत्त अधिकारियों को बिठाते हैं, लेकिन यह तब समस्या बन जाता है, जब सिवीलियन का महत्व कम हो जाता है. और यही लोकतंत्र के लिए खतरा है. यदि सेवानिवृत्त जनरल अपने वर्तमान बॉस की तुलना में पूर्व बॉस से ज्यादा प्रभावित रहते हैं, तो लोकतंत्र सही तरीके से काम नहीं करता है.