रायपुर। आदिवासी जनजीवन, अस्मिता और अस्तित्व के लिए लड़ाई लड़ने वाले बिरसा मुंडा को कौन नहीं जानता. पूरे भारत वर्ष में उन्हें एक जननायक के रूप में याद किया जाता है. आदिवासी जनता बिरसा मुंडा को भगवान की तरह याद करती है. केवल 25 साल में बिहार, झारखंड और ओडिशा में जननायक की पहचान बनाई. अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में उन्होंने अहम भूमिका निभाई थी. उन्होंने आदिवासी जनजीवन अस्मिता एवं अस्तित्व को बचाने के लिये लम्बा एवं कड़ा संघर्ष किया.

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहतु गांव में हुआ था. मुंडा रीति रिवाज के अनुसार उनका नाम बृहस्पतिवार के हिसाब से बिरसा रखा गया था. उनका परिवार रोजगार की तलाश में उनके जन्म के बाद उलिहतु से कुरुमब्दा आकर बस गया. जहां वो खेतों में काम करके अपना जीवन चलाते थे. बिरसा ने कुछ दिन तक चाईबासा के जर्मन मिशन स्कूल में शिक्षा ग्रहण की. परन्तु स्कूलों में उनकी आदिवासी संस्कृति का जो उपहास किया जाता था, वह बिरसा को सहन नहीं हुआ. इस पर उन्होंने भी पादरियों का और उनके धर्म का भी मजाक उड़ाना शुरू कर दिया. फिर  ईसाई धर्म प्रचारकों ने उन्हें स्कूल से निकाल दिया.

1766 के पहाड़िया-विद्रोह से लेकर 1857 के गदर के बाद भी आदिवासी संघर्षरत रहे. 1895 से 1900 तक बिरसा मुंडा का महाविद्रोह ‘ऊलगुलान’ चला. आदिवासियों को लगातार जल-जंगल-जमीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जाता रहा और वे इसके खिलाफ आवाज उठाते रहे. 1895 में बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गई जमींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-जमीन की लड़ाई छेड़ी थी. उन्होंने सूदखोर महाजनों के खिलाफ भी जंग का ऐलान किया. ये महाजन, जिन्हें वे दिकू कहते थे, कर्ज के बदले उनकी जमीन पर कब्जा कर लेते थे. यह मात्र विद्रोह नहीं था, बल्कि यह आदिवासी अस्मिता, स्वायतत्ता और संस्कृति को बचाने के लिए महासंग्राम था.

जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत-सी औरतें और बच्चे मारे गये थे. उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे. बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ्तारियां भी हुईं. अन्त में स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ्तार कर लिये गये. ब्रिटिश हुकूमत ने इसे खतरे का संकेत समझकर बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया. वहां अंग्रेजों ने उन्हें धीमा जहर दिया था. जिस कारण 9 जून 1900 को बिरसा की मृत्यु हो गई. लेकिन लोक गीतों और जातीय साहित्य में बिरसा मुंडा आज भी जीवित हैं.