-अशोक कुमार पांडेय
जिस दिन पूरे पहले पन्ने देश की आज़ादी की ख़बर छपी थी, राष्ट्रपिता के बारे में बस एक छोटी सी एक कॉलम की ख़बर थी- गांधी आज उपवास करेंगे.
पंद्रह अगस्त को दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू ने आधी रात को तिरंगा फ़हरा कर आज़ादी की घोषणा की तो गांधी कश्मीर से लौटकर कलकत्ते के बेलियाघाटा में थे जहाँ 10 अगस्त को वह फिर से भड़क उठे फ़साद के नियंत्रण की कोशिश कर रहे थे। उस दिन चरखा कातते हुए ब्रिटेन की सुधारक और भारतीय आज़ादी की समर्थक अगाथा हैरिसन को लिख रहे थे –‘तुम जानती हो आज जैसे महत्त्वपूर्ण मौकों को मनाने का मेरा तरीक़ा भगवान का धन्यवाद देना है यानी प्रार्थना करना।इस प्रार्थना के बाद निश्चित रूप से उपवास होना चाहिए…और फिर ग़रीबों के प्रति समर्पण के रूप में चरखा चलाया जाना चाहिए।’ बंगाल के मंत्रियों को उन्होंने दिखावे और भ्रष्टाचार से दूर रहते हुए जनता की सेवा की सलाह दी तो बंगाल के राज्यपाल सी राजगोपालाचारी की बधाई के जवाब में कहा – ‘मैं तब तक संतुष्ट नहीं हो सकता जबतक हिन्दू और मुसलमान एकदूसरे के साथ सुरक्षित न महसूस करें।’ इसके बिना वह उस दिन की ख़ुशियों में शामिल होने को तैयार नहीं थे।जब भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधिकारी उनसे सन्देश लेने आये तो उन्होंने कहा –मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं है। बीबीसी के संवाददाता ने जब ज़ोर दिया तो कहा –भूल जाओ कि मुझे अंग्रेज़ी आती है.
आज़ादी की ख़ुशी को विभाजन और साम्प्रदायिक दंगों ने ढँक लिया था. यह विभाजन अंग्रेज़ों की सफलता था और उनके ख़िलाफ़ मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे भारतीयों की हार.
अंग्रेज़ों ने 1857 के जनविद्रोह की विफलता के बाद लगातार इस एकता को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास किया. बम्बई के तत्कालीन गवर्नर लार्ड एल्फिन्स्टाईन ने 14 मई 1859 को एक बैठक में नोट किया था – ‘बांटो और राज करो’ (Divide et Impeta) एक पुरानी रोमन कहावत है,यह अब हमारी नीति होनी चाहिए. अंग्रेज़ों की इस कोशिश को इतिहास पढने वाला हर कोई जानता है और यह समझना मुश्किल नहीं कि इस कोशिश में उनका साथ साम्प्रदायिक हिन्दुओं और मुसलमानों के संगठनों ने ही दिया
साम्प्रदायिक ताक़तों का उभार और कांग्रेस तथा गाँधी
अगर इतिहास देखें तो 1885 में अपने निर्माण के समय से कांग्रेस ने सेक्युलर नीतियाँ अपनाईं थीं और हिन्दू या मुसलमान की जगह भारतीय हितों का प्रतिनिधि संगठन बनकर उभरी थी. लेकिन दूसरी तरफ़ दोनों ही धर्मों में ऐसे संगठन धीरे-धीरे उभरे जिन्होंने अंग्रेज़ों के सहयोग से देश में साम्प्रदायिक बँटवारे की नींव गहरी करने में पूरी ताक़त लगाईं.
मुस्लिम लीग हो या हिन्दू महासभा या फिर आर एस एस, आप देखेंगे कि अपने धार्मिक हितों की बात करने वाले ये संगठन दरअसल अपने समुदायों के उच्चवर्गों के हितों की रक्षा कर रहे थे और आज़ादी की लड़ाई से पूरी तरह दूर थे. यह महज़ संयोग नहीं है कि 1942 में जब पूरा देश भारत छोड़ो के नारे से गूँज रहा था तो सावरकर और जिन्ना, दोनों ही ब्रिटिश हुकूमत के साथ खड़े थे और बंगाल और सिंध जैसी जगहों पर साथ में सरकार चला रहे थे, संयोग यह भी नहीं है कि उसी दौर में हिन्दू महासभा के समर्थन से चल रही सिंध की सरकार ने जब पाकिस्तान का प्रस्ताव असेम्बली में लाया तो महासभा ने उसका मूक समर्थन किया और गाँधी के हर क़दम का विरोध करने वाली मुस्लिम लीग सावरकर के डोमिनियन स्टेट्स स्वीकार करने वाले प्रस्ताव पर कुछ नहीं कहती थी. न सावरकर के शिष्यों ने कभी जिन्ना को मारने की कोशिश की न जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन में कभी सावरकर पर कोई हमला हुआ. सोचियेगा कभी इन दोनों साम्प्रदायिक संगठनों की गांधी से साझा दुश्मनी का कारण क्या था
अंग्रेज़ों की साज़िशें और कांग्रेस की कोशिशें
ब्रिटिश सत्ता ने बंगाल का विभाजन, मिंटो-मार्ले सुधार, मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार जैसे क़दमो से इस दरार को खाई में बदलने में पूरा सहयोग दिया. लोकमान्य तिलक ने 1916 में मुस्लिम लीग के साथ समझौता कर इसी खाई को पाटने की कोशिश की थी और हमने देखा है कि गांधी उसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए लगातार हिन्दू-मुस्लिम एकता की कोशिशें कर रहे थे और एक क़दम आगे बढ़कर सामाजिक रूढ़ियों का भी विरोध कर रहे थे.
विभाजन को रोकने का एक ही तरीका था कि उत्तर से दक्षिण तथा पूरब से पश्चिम तक के सभी अल्पसंख्यकों, दलितों और भाषा-भाषियों को यह भरोसा दिलाया जाता कि आज़ाद भारत में वे बराबर की सुरक्षा और सम्मान के हक़दार होंगे. तभी एक राष्ट्र के निर्माण में सारी जनता अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर पूरे उत्साह से शामिल हो सकती थी. सर्वधर्म समभाव, अस्पृश्यता के विरुद्ध सतत आन्दोलन, अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन, संस्कृतनिष्ठ तथा फ़ारसीनिष्ठ भाषा की जगह सहज-सरल-सर्वसमावेशी हिन्दुस्तानी के प्रचार और अन्य भाषाओं को बराबरी का सम्मान दिलाने की मुहिम जैसे क़दमों से गांधी यही प्रयास कर रहे थे.
इसीलिए नोआखली में उनकी चिंता का केंद्र अल्पसंख्यक हिन्दू थे तो दिल्ली में उनकी चिंता के केंद्र में अल्पसंख्यक मुसलमान थे. बँटवारे का समर्थन तो छोड़िये उन्होंने बँटवारे के बाद भी यह सपना देखना नहीं छोड़ा था कि एकदिन हिन्दुस्तान और पाकिस्तान फिर से एक हो जाएंगे, उनके लिए तो कभी वे बंटे थे ही नहीं. इसीलिए तो वह एकतरफ दिल्ली में हिंसा रोकने की कोशिश कर रहे थे तो दूसरी तरफ़ लगातार पाकिस्तान में हो रही हिंसा की लानत-मलामत करते हुए वहाँ जाकर उसे रोकने की इच्छा जता रहे थे.
इसीलिए गांधी दोनों तरफ़ के विभाजनकारी तत्त्वों के लिए एक असुविधा थे
विभाजन : कुछ तथ्य
कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों पर विचार करने के लिए जब 25 जून 1946 को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई थी तब गांधी ने कहा था – मैं हार स्वीकार करता हूँ…आपलोगों को अपनी समझ के अनुसार काम करना चाहिए। वह अंतरिम सरकार स्थापना की अल्पकालिक योजना के बिना संविधान सभा की दीर्घकालिक योजना की सफलता को लेकर संशय में थे। लेकिन पटेल मिशन के सदस्यों के साथ 2 जून की बैठक में वादा कर आये थे कि वह कांग्रेस कार्यसमिति में उन ‘16 मई प्रस्तावों’ को पास करा लेंगे जो अंतरिम सरकार के गठन का रास्ता खोलती थी. नेहरू और मौलाना आज़ाद को भी उन्होंने राज़ी कर लिया था.
जब पूछा पटेल ने कि क्या आप संतुष्ट हैं तो गांधी ने जवाब दिया – उलटे मेरा संशय गहरा हो गया है.लेकिन जब सरदार पटेल, नेहरू और कार्यसमिति के अन्य सदस्य राजी थे तो उन्होंने हार मान ली.
गांधी सही थे
हालाँकि जब भारी उठापठक के बाद लीग और कांग्रेस की संयुक्त सरकार बनी तो यह साबित हो गया कि गांधी के संशय सही थे
पटेल ने अपनी ज़िद से इस सरकार में गृहमंत्री का पद अपने पास रखा. मुस्लिम लीग के लियाक़त अली खान को वित्त मंत्रालय मिला. यह निर्णय असल में उलटा पड़ा. लियाक़त ने वित्त मंत्री के रूप में कांग्रेसी मंत्रियों के हर प्रस्ताव की राह में रोड़े अडकाये. हालत ये कि चपरासी तक की नियुक्ति में उन्हें वित्त मंत्रालय के चक्कर लगाने पड़ते थे. असल में, पहले दिन से लीग के मंत्रियों ने प्रधानमन्त्री नेहरू या पटेल को नेता मानने से इंकार किया और कैबिनेट के भीतर एक अलग कैबिनेट की तरह काम करते रहे. डायरेक्ट एक्शन के चलते मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान के लिए जो दबाव बनाया था वह सरकार के भीतर रहकर और बढ़ाते गए. लीग के मंत्री राजा गज़नफ़र अली खान ने खुलेआम कहा – हम सरकार में पाकिस्तान के अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए हैं.
उस मंत्रिमंडल के सदस्य रहे मौलाना आज़ाद लिखते हैं – वे (मुस्लिम लीग के सदस्य) सरकार में थे और फिर भी सरकार के ख़िलाफ़ काम कर रहे थे… हालात ऐसे हुए कि लियाक़त ने बजट बनाया तो पटेल और राजगोपालाचारी पूरी तरह इसके ख़िलाफ़ हो गए. उन्होंने आरोप लगाया कि यह बजट जानबूझकर भारतीय उद्योगपतियों के हितों के ख़िलाफ़ है.
उधर अंग्रेज़ भीतर-भीतर लीग का समर्थन कर रहे थे और अंतत: लन्दन में हुई एक बैठक में ‘समूह से बाहर होने के अधिकार’को लेकर लीग के पक्ष में फ़ैसला दिया. 15 दिसंबर को सरदार पटेल ने क्रिप्स को लिखा – आप जानते हैं गाँधी जी पूरी तरह से हमारे समझौते के ख़िलाफ़ थे, लेकिन मैंने अपना ज़ोर लगाया. आपने मेरे लिए एक बेहद प्रतिकूल स्थितियाँ बना दी हैं. हम सबको यहाँ लग रहा है कि धोखा हुआ है…
नेहरू भी यह ख़ूब समझ रहे थे. नवम्बर के अंत में मेरठ की एक आमसभा में उन्होंने खुला आरोप लगाया था कि – मुस्लिम लीग और अंग्रेज़ अधिकारियों में एक मानसिक गठजोड़ है.
साम्प्रदायिक ताक़तों के उत्पात
उधर साम्प्रदायिक घटनाएँ लगातार बढ़ती जा रही थीं. गांधी जब नोआखली में आग बुझाने की कोशिश कर रहे थे तो बिहार में सात हज़ार और फिर गढ़मुक्तेश्वर में एक हज़ार मुसलमान मारे गए.
देश के दूसरे हिस्सों से भी हिंसा की ख़बरें लगातार आ रही थीं. इधर अंतरिम सरकार के भीतर मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं और जिन्ना ने संविधान सभा का बहिष्कार किया हुआ था. हालात इतने बिगड़े कि पटेल और नेहरू ने वायसराय लार्ड वेवेल से लीग के सदस्यों को मंत्रिमंडल से बाहर करने की अपील की. लेकिन पटेल की इस धमकी के बावजूद कि अगर लीग के लोग बाहर नहीं जाएंगे तो हम चले जाएंगे, वेवेल ने ऐसा करने से इंकार कर दिया. जब एटली ने ब्रिटिश सरकार की विदाई के लिए जून, 1948 की समयसीमा तय की तो कांग्रेस ने अपना निर्णय वापस ले लिया.
ऐसे हालात में नेहरू और पटेल दोनों धीरे-धीरे इस बात के लिए मुतमइन होते जा रहे थे कि लीग के साथ कोई तालमेल संभव नहीं है. ब्रिटिश सरकार बिगड़ी हुई क़ानून व्यवस्था और संविधान सभा की विफलता के लिए आज़ादी के दिन आगे बढ़ाती तो भी हालात ऐसे ही थे कि अंततः विभाजन या लम्बे गृहयुद्ध जैसी स्थितियों में से किसी एक के ही चयन की संभावना होती. न तो मुस्लिम लीग अपने प्रभाव के इलाकों में हिंसा रोकने के लिए तैयार थी न हिन्दुत्ववादी दक्षिणपंथी ताक़तें अपने इलाक़ों में.
कभी जिस गांधी की एक आवाज़ पर देश अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ उठ खड़ा होता था अब वह अकेले पड़ते जा रहे थे, पार्टी के अन्दर भी और बाहर भी.
दिसम्बर के अंत तक पटेल स्वीकार कर चुके थे कि विभाजन ही इकलौता रास्ता है. उनके जीवनीकार राजमोहन गांधी मणिबेन की डायरी के हवाले से बताते हैं कि 25 दिसम्बर 1946 को बी पी मेनन ने उन्हें पंजाब और बंगाल के विभाजन द्वारा पाकिस्तान के निर्माण की एक योजना सुझाई थी और पटेल ने उसे स्वीकार कर लिया था.
जिन्ना जो पकिस्तान मांग रहे थे उसकी तुलना में यह भारत के लिए काफी बेहतर विकल्प था. जिन्ना ने नवम्बर में वेवेल से बातचीत में ही इसका इशारा कर दिया था – चाहे कितना भी छोटा हो, लेकिन मुसलमानों को अपना एक देश चाहिए. लेकिन वह चुप नहीं बैठे थे. बंगाल और सिंध में उनका बहुमत था लेकिन पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी के मलिक खिज्र हयात खान तिवाना की कांग्रेस और अकाली दल के साथ साझा सरकार थी जो लीग और विभाजन के ख़िलाफ़ थी. ऐसे ही उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी. ‘इस्लाम ख़तरे में है’ के नारे के साथ लीग ने इन प्रदेशों में सरकार गिराने की मुहिम शुरू की तो एकबार फिर दंगे शुरू हो गए. मार्च के आरम्भ में खिज्र हयात को इस्तीफ़ा देना पड़ा और उसके बाद फिर हिंसा का एक दौर शुरू हुआ.
जब बीस मार्च को माउंटबेटन भारत आये तो पंजाब में आधिकारिक रूप से 2049 मौतें हुई थीं और हज़ार से अधिक लोग घायल हुए थे. अब तक सब मानसिक रूप से विभाजन के लिए तैयार हो चुके थे, सिवाय गांधी के.
मार्च के आरम्भ में जब पटेल की सहमति से हिन्दुस्तान टाइम्स में ख़बर छपी कि कांग्रेस पंजाब और बंगाल के विभाजन के लिए तैयार है तो 22 तारीख़ को नोआखली से उन्होंने पटेल से पूछा – क्या आप अपना पंजाब प्रस्ताव मुझे समझा सकते हैं? यह मेरी समझ में नहीं आया.पटेल का जवाब था – एक ख़त में इसे समझाना मुश्किल है. यह बहुत सोच-समझ के लिया गया फ़ैसला है जल्दबाज़ी में नहीं. मैंने अखबारों में पढ़ा कि आपने इसके ख़िलाफ़ राय दी है. ज़ाहिर तौर पर आप जो सही समझें कहने के लिए आज़ाद हैं
बाक़ी तो कोई अंदाज़ न लगा पा रहा था लेकिन देश की रग पहचानने वाले गांधी जानते थे कि देश बंटा तो हिंसा होगी.
हिंसा का जो बवडंर आज़ादी और बँटवारे के साथ आया था, गांधी को उसका अंदाज़ा था। कलकत्ते आते हुए माउंटबेटन को उन्होंने लिखा था- ‘अगर बँटवारा हुआ, ख़ासतौर पर बंगाल और पंजाब का बँटवारा हुआ तो यह भयावह रूप से त्रासद हालात पैदा करेगा।’ लेकिन माउंटबेटन बज़िद थे। जून 1948 की डेडलाइन को अगस्त 1947 में बदल दिया गया और फिर जब मानव इतिहास की सबसे खौफ़नाक घटनाओं में से एक में हिन्दुस्तान की नई सरहदों से लहू की बेशुमार धारें फूट पड़ीं तो न युद्धों के अनुभवी लार्ड माउंटबेटन रोक पाए न जिन्ना न नेहरू न पटेल।
-अशोक कुमार पांडेय के ब्लॉग से साभार
-यह लेख उन्होंने अपनी आनेवाली किताब – उसने गाँधी को क्यों मारा – के लिए जुटाए तथ्यों के आधार पर लिखा गया है.
(अशोक कुमार पांडेय लेखक एवं विचारक हैं. उन्होंने कश्मीर और कश्मीरी पंडित, कश्मीरनामा- इतिहास और समकाल, शोषण के अभ्यारण्य- भूमंडलीकरण के दुष्प्रभाव और विकल्प का सवाल जैसी किताबें लिखी हैं.)