छत्तीसगढ़ बीजेपी में इन दिनों सब कुछ ठीक ठाक नहीं चल रहा. नेताओं के भीतर गुटबाजी पनपने की सुगबुगाहटों के बीच पिछले दिनों प्रदेश प्रवक्ता सच्चिदानंद उपासने के उस बयान ने संगठन की कलई खोलकर रख दी है, जिसमें उन्होंने कहा कि 15 साल के शासन से पार्टी में बहुत सारे दुर्गुण आए हैं. उपासने ने यह सवाल भी उठाया था कि 15 सालों तक सत्ता में रहने के बाद आखिर क्यों हमारी स्थिति ऐसी हो गई है? इस पर चिंतन की जरूरत है. उन्होंने कहा कि संघ और पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की गई. इसका दुष्परिणाम व्यक्ति को नहीं हुआ, बल्कि पार्टी को भुगतना पड़ा है. उपासने ने नेतृत्व पर सवाल उठाते हुए कहा कि हमारे धारदार नेतृत्व में कहीं ना कहीं कोई कमी है, हम निर्णय कर पाने में देरी क्यों कर रहे हैं. पार्टी में पहले पराक्रम और परिश्रण को महत्व मिलता था, लेकिन जब से परिक्रमा को महत्व मिलने लगा है, उस दिन से हमारा पतन हो गया है. प्रदेश उपाध्यक्ष ने कहा कि छत्तीसगढ़ में हमे सरकार विरासत में नहीं मिली थी. कांग्रेस के गढ़ को तोड़कर सत्ता पाई गई थी. हजारों कार्यकर्ताओं ने अपमान सहा, जेल गए, हत्या हुई, तब जाकर सरकार मिली. अभी वक्त है हमारे निष्ठावान कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाए, उनसे स्नेह करें, उसकी पीठ पर हाथ रखे, वह पद का भूखा नहीं है, सम्मान का भूखा है. पार्टी यदि उन्हें अपनाकर चले तो 15 साल की पहचान फिर से वापस आ सकती है. सच्चिदानंद उपासने का यह बयान उस वक्त सामने आया, जब संघ प्रमुख मोहन भागवत छत्तीसगढ़ के दौरे पर थे. जाहिर है, इस बयान को जारी करने के पीछे एक गणित छिपा रहा होगा, जिसे उपासने बखूबी समझ रहे होंगे.
बीजेपी के भीतर नाराज धड़े में केवल सच्चिदानंद उपासने ही एकमात्र चेहरा नहीं है. उपासने महज एक व्यक्ति हैं, जो एक बड़ी भीड़ का हिस्सा मात्र हैं. संगठन के भीतर चल रही कानाफूसी कहती है कि धीरे-धीरे एक बड़ा गुट मौजूदा नेतृत्व के खिलाफ लामबंद हो रहा है. यह गुट बेहद ही प्रभावशाली नेताओं से भरा हुआ है. इस गुट के निशाने पर राष्ट्रीय संगठन महामंत्री सौदान सिंह से लेकर पूर्व मुख्यमंत्री डाॅक्टर रमन सिंह तक शामिल हैं. शुचिता और अनुशासन की पैरवी करने वाली पार्टी में उभरी नाराजगी यह सवाल उठाती है कि आखिर क्यों रमन-सौदान अपनी ही पार्टी में विरोध के प्रतीक बन रहे हैं? आखिर क्या वजह है कि जिस रमन-सौदान के इर्द-गिर्द संगठन की धुरी चली जा रही थी, वह अब अचानक प्रतिरोध पर उतारू है? नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं तक होने वाली अनौपचारिक बातचीत में इस सवाल का जवाब मिलता है. राजनीतिक प्रेक्षकों के विश्लेषण में तर्क सामने आते हैं.
राजनीतिक प्रेक्षक सौदान सिंह को छत्तीसगढ़ बीजेपी का वह छत्रप मानते हैं, जिसके विरोध का मतलब संगठन में हाशिए पर जाना होता है. प्रेक्षक कहते हैं कि सौदान सिंह राज्य इकाई में अंगद की तरह बन गए हैं, जिनके पैरों को जड़ों से हिला पाना आसान नहीं है. चुनाव के पहले प्रदेश भर के दौरे पर निकले सौदान सिंह को भी कई जगहों पर भारी विरोध से गुजरना पड़ा था, लेकिन बदलाव के रूप में शून्यता ही कार्यकर्ताओं के हिस्से आई थी. बीजेपी के भीतर अक्सर यह चर्चा की जाती है कि राज्य की सियासत की तीन पारी यदि बीजेपी ने खेली, तो उसके पीछे सौदान सिंह की रणनीति बेहद कारगर रही, पर जब चर्चा साल 2018 के विधानसभा चुनाव की होती है, तो हार की नैतिक जिम्मेदारी कार्यकर्ताओं पर थोप दी जाती है. हालांकि अधिकृत तौर पर छत्तीसगढ़ संगठन ने कभी भी हार की समीक्षा नहीं की थी. तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष धरमलाल कौशिक ने यह पूछे जाने पर कि किन वजहों से पार्टी को जनता ने सत्ता से बेदखल किया है? किन वजहों से पार्टी को हार का सामना करना पड़ा? इस पर बयान देते हुए यह जरूर कहा था कि कार्यकर्ताओं ने मेहनत नहीं की थी. सत्ता में रहते हुए बीजेपी कार्यकर्ताओं ने जितना उपेक्षा का भाव महसूस नहीं किया था, बतौर अध्यक्ष कौशिक के इस बयान ने कार्यकर्ताओं की निष्ठा को ठेस पहुंचाई थी. क्या यह बयान धरमलाल कौशिक के ही थे ? या फिर यह आंतरिक बैठकों में हुई चर्चा की परिणीति थी. यह अस्पष्ट ही रहा. इधर संगठन के ज्यादातर नेता चर्चा में अक्सर यह कहते हैं कि बीजेपी के भीतर सौदान सिंह ऐसे इकलौते चेहरे होंगे, जिन्हें राष्ट्रीय संगठन महामंत्री के रूप में एक राज्य में काम करते हुए डेढ़ दशक से ज्यादा का वक्त बीत गया. नेता उदाहरण स्वरूप यह तर्क देते हैं कि आरएसएस ने करीब 13 साल तक राष्ट्रीय संगठन महामंत्री रहे रामलाल की जगह बी एल संतोष को जिम्मेदारी दी है, तो छत्तीसगढ़ में डेढ़ दशक से ज्यादा वक्त बीता चुके सौदान सिंह की जगह नए चेहरे को तरजीह क्यों नहीं दी जा सकती? (हालांकि सवाल उठाने वाले नेता इस शर्त पर यह बयान देते हैं कि उनका नाम उजागर ना किया जाए.)
नाराज धड़े का पूर्व मुख्यमंत्री डाॅक्टर रमन सिंह पर यह सीधा आरोप है कि संगठन में लिए जाने वाले फैसले उनके थोपे हुए होते हैं. चाहे नेता प्रतिपक्ष के रूप में धरमलाल कौशिक को चुने जाने का फैसला हो, या फिर विष्णुदेव साय को प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने का मसला. नेता प्रतिपक्ष के चुनाव के दौरान पार्टी के भीतर खींचतान के हालात देखे गए थे. नेता प्रतिपक्ष के चुनाव की अंतिम घड़ी थी. सदन की कार्यवाही शुरू हो चुकी थी, तब बीजेपी कार्यालय में मौजूद सभी 15 निर्वाचित विधायकों के बीच बहस का दौर चल रहा था. बृजमोहन अग्रवाल, अजय चंद्राकर, शिवरतन शर्मा, ननकीराम कंवर, नारायण चंदेल जैसे तमाम विधायक तब धरमलाल कौशिक को नेता प्रतिपक्ष चुने जाने का विरोध कर रहे थे. तर्क दिए जा रहे थे कि आक्रामक और नए चेहरे को मौका दिया जाना चाहिए. दावेदारों में ननकीराम कंवर, बृजमोहन अग्रवाल, अजय चंद्राकर, शिवरतन शर्मा जैसे कई नाम शामिल थे. बहस अंतहीन होते देख दिल्ली पर निर्णय छोड़ दिया गया और ज्यादातर विधायकों के विरोध के बावजूद धरमलाल कौशिक नेता प्रतिपक्ष चुने गए. यही स्थिति प्रदेश अध्यक्ष चुने जाने के दौरान भी देखी गई थी. देशभर के अनेक राज्यों में जब प्रदेश अध्यक्ष चुन लिए गए थे, छत्तीसगढ़ संगठन की गुटबाजी देख आलाकमान ने चुनाव ठंडे बस्ते में छोड़ रखा था. जब अध्यक्ष की ताजपोशी की बारी आई, आलाकमान ने सीधे विष्णुदेव साय के नाम को मंजूरी दे दी थी. इन फैसलों ने दो चीजें साबित की. एक, संगठन का नेतृत्व किसी और के हाथों में क्यों ना हो असली सारथी रमन सिंह ही है. दूसरा यह कि रमन की जीत से विरोधी खेमे के हाथ भले ही तात्कालीक सफलता न मिली, लेकिन दूर की लड़ाई के लिए हाथ जुड़ते चले गए. आज आलम यह है कि बीजेपी में गुटबाजी उफान पर आ रही है.
बीजेपी में उठा यह बवंडर बीते 15 सालों के उस दबाव के बाद उठ खड़ा हुआ है, जिसे सत्ता की ताकत ने संभाले रखा था. सत्ता गई, तब भी प्रभाव का असर ही था, जिसने करीब दो सालों तक सतही हलचल के बावजूद परिस्थितियों को बांधने की कोशिश की. अब हालात बदल गए हैं. शुचिता और अनुशासन का दंभ भरने वाली बीजेपी सवालों के घेरे में आ गई? संगठन नेताओं को उम्मीद थी कि हालातों की समीक्षा कर केंद्रीय संगठन राज्य को एक ऐसा नेतृत्व देगा, जो संगठन की कमजोर होती जड़ों में उर्वरक डालकर उसे मजबूती देने की कवायद करेगा. पर विष्णुदेव साय को नेतृत्व सौंपे जाने के बाद बीजेपी कैडर में वह उत्साह ढूंढते नजर नहीं आया, जिसकी उम्मीद की गई थी.
बहरहाल बीजेपी के हालात जल्द ठीक होते नजर नहीं आते. सतह के नीचे छिपे नाराजगी फूट कर बाहर आ रही है, जाहिर है अब इस कारवां से वो तमाम चेहरे भी जुड़ते चले जाएंगे, जिनके भीतर इस बात को लेकर कोफ्त हो रही है कि राज्य में अर्श से फर्श पर आने के लिए जिम्मेदार चेहरों के हाथों ही संगठन की बागडोर आज भी कायम है. प्रदेश अध्यक्ष की कमान संभालने के बाद विष्णुदेव साय की नई कार्यकारिणी बननी बाकी है. इंतजार उस कार्यकारिणी के गठन तक का है, यदि पुराने चेहरों को ही तरजीह दी गई, तो बगावत की आंधी में बीजेपी किस छोर तक जा पहुंचेगी, इसका आंकलन करना फिलहाल बेहद मुश्किल है.