छतीसगढ़ की बड़ी आबादी गाँवो ( 4617)में है, बड़ा हिस्सा जंगलो से घिरा है।प्रकृति के क़रीब होने और उसे आत्मसात करके बसे कई गाँव, क़स्बे, छोटे शहर, स्मार्ट होने की दौड़ में ज़रूर हैं, लेकिन इनकी नैसर्गिक खूबियों ने प्रदेश को पहचान दिला कर शहरी विकास मंत्रालय की रेटिंग में वरीयता ले आयी.
छतीसगढ़ के दो आदिवासी बहुल दो संभाग की बात करें तो बस्तर और सरगुज़ा के अधिकांश इलाकों में जंगल है, इसके दो बड़े शहर, जगदलपुर और अम्बिकापुर अपने आप में पूरे देश के लिए अनुकरणीय हो सकते है।दोनो शहर की जलवायु- वातावरण इनसे मिलती आबादी और जीवन शैली से तुलना की जाय तो आप पाएँगे कि इन दोनो छोटे शहरों में गाँव का प्रभाव ज़्यादा है, सभी बड़ी परिलब्धियों से युक्त दोनो शहर है मसलन रेल, अच्छा सड़क सम्पर्क,जल्द ही हवाई नक़्शे में भी आ सकते है, बावजूद इसके अपनी संस्कृति के साथ जीवन शैली को समेटे हुए है।कारण स्पष्ट है कि बड़े शहर की भागमभाग, फटाफट शैली के उलट यहाँ जीवन अपेक्षाकृत शांत और सुरम्य है, शहर से थोड़ा बाहर आते ही प्रकृति अपने स्वरूप में है, मानो प्रकृति ने इस शहर को चुना है.
भारत गाँवो में बसता है, और कुछ शहर छोड़ दें तो हर शहर की अपनी संस्कृति अपनी विरासत की छाप है जो उसे दूसरे शहर से अलग करती है।शहर जितना अपनी विरासत और संस्कारो के क़रीब होता है, वह उतनी गहरी पहचान लिए होता है। किसी इलाहाबादी, बनारसी, इंदौरी,भोपाली, या अहमदाबादी से उसके शहर की ग़ुस्ताखी में यदि आप कुछ कह गए तो वो भिड़ जाएगा, यही बात दिल्ली, जयपुर, नागपुर, चण्डीगढ़, बेंगलूरू के लिए आप दावे से नही कह सकते.
छतीसगढ़ की नई निर्वाचित भूपेश सरकार ने आते ही छतीसगढ़ के गाँव को अपने फ़ोकस में रखा, पालतू और आवारा पशुओं के लिए गौठान, हालिया गोबर को ख़रीदने की नीति को यदि क़रीब से देखे तो ये छतीसगढ़ के के लिए गेमचेंजर है ।गाँव की सड़कों और हाईवे में पशुओं की मौजूदगी धीरे धीरे कम होने लगी है।गाँव की गलियों और सड़क में पड़ा गोबर भी अब बिकने लगा है।सफ़ाई और सड़क की गति के लिए ये महत्वपूर्ण कदम साबित होगा.
एक सबक़ राजधानी रायपुर के लिए ज़रूर है, कि नवा रायपुर की चमचमाती सड़कों और न्यास से इतराने की बजाय रायपुर में अपने रईपुर को बढ़ाए, पुराना रायपुर थोड़ा तंग ज़रूर था लेकिन साँस लेता था, बूढ़ा, कंकाली, महराजबंद, रजबँधा, कटोरा, आमा, राजा और तेलिबांधा तालाबों से इतराता था, एक समय था छोटे बड़े दर्जनों तालाब के पार से कई पारा( मोहल्ले) बने अब खेतों को समतल कर हॉउसिंग कॉलोनियाँ कॉम्प्लेक्स बन गए हैं। मॉलो के शहर के बीच मालवीय रोड अपनी पहचान बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है । गाँवो, क़स्बों और छोटे शहरों की बदौलत पूरे प्रदेशों में छतीसगढ़ नम्बर 1 आ तो गया और शायद क़ायम रहे, लेकिन सच्चाई यह है कि इसके बड़े शहर भेड़ चाल में अपनी पहचान खोते जा रहे है, रायपुर- बिलासपुर, भिलाई-दुर्ग, रायगढ़, राजनाँदगाँव वासियों / निगम निकाय को अपने शहर के मिज़ाज को समझना पड़ेगा, और अपनी पहचान को पुनर्स्थापित करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए साथ ही छतीसगढ़ को उसके गाँव, और यहाँ बसती संस्कृति के लिए कृतज्ञता के बोध के साथ उसे शहरों में आत्मसात करना होगा.
लेखक- मनोज त्रिवेदी ( नवभारत के CEO एवं दैनिक भास्कर, नईदुनिया के महाप्रबंधक रह चुके हैं)