रामकुमार यादव, अंबिकापुर। क्या वाकई में सरकारी योजनाएं अंतिम पंक्ति के व्यक्ति तक पहुंच रही है? क्या वाकई में जनजातियों की दशा सुधर रही है? क्या वाकई में शासन और प्रशासन की तरफ से दी जाने वाली हर मदद गरीबों तक पहुंच रही है? अगर इन सवालों का जवाब हां में है तो सिस्टम में शामिल उन सभी लोगों को अंबिकापुर के रघुनाथ पुलिस चौकी क्षेत्र में घटित इस घटना के बारे में जरुर जानना चाहिए।

यहां एक ऐसी घटना घटी है जिसके बारे में सुनकर तस्वीरों को देखकर किसी भी संवेदनशील इंसान का दिल दहल उठे। वो गुस्से से भर उठे और कोसने पर मजबूर हो जाए क्या यही है सिस्टम? जहां आज भी घास-फूस की झोपड़ी पर रहने को लोग मजबूर हैं। क्या यही है सिस्टम जहां आजादी के कई दशकों बाद और छत्तीसगढ़ निर्माण के 20 बरस बाद भी ऐसी लाचार स्थिति को देखने के लिए हम मजबूर हैं। आईये आपको पूरा घटनाक्रम विस्तार से बताते हैं।

घास-फूस की झोपड़ी

यह घटना सोमवार तड़के की है, कड़कड़ाती ठंड के बीच ग्राम जरहाडीह के डेढ़ोली कोरवा पारा में घास-फूस की झोपड़ी (झाले) में रतिराम कोरवा अपनी पत्नी और 3 वर्षीय बच्ची के साथ रहता था। रात को खाना खाने के बाद सभी सो गए। रविवार तड़के अचानक इस झाले में आग लग गई। इससे पहले कि घर में सो रहे लोगों को संभलने का मौका मिलता, घास-फूंस से बनी होने की वजह से आग तेजी से पूरी झोपड़ी को अपने आगोश में ले ली। पति-पत्नी आनन-फानन में बाहर निकल आए लेकिन 3 साल की मासूम बच्ची को बाहर निकाल नहीं पाए। आग की तेज लपटों के बीच बच्ची की जलने से मौके पर ही मौत हो गई।

सुबह होते ही मासूम मृतिका के पिता ने नदी किनारे बालू में उसके शव को दफन कर दिया। घटना की सूचना मिलते ही रघुनाथपुर पुलिस मौके पर पहुंची और तहसीलदार की उपस्थिति में शव को बाहर निकालवाया। डॉक्टर की मौजूदगी में शव का पीएम कराकर अंतिम संस्कार करने परिजन को सौंपा दिया गया।

 

 

रघुनाथपुर चौकी प्रभारी संदीप कौशिक ने बताया कि घटना की जानकारी लगते ही तहसीलदार की उपस्थिति में शव का पोस्टमार्टम कराया गया। पीएम रिपोर्ट आने के बाद अग्रिम कार्रवाई की जाएगी।

अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि इस घटना के बाद अब प्रशासन क्या करेगा? इस परिवार को मिले जख्मों पर मरहम लगाने क्या मुआवजा दिया जाएगा? या इन संरक्षित जनजातियों तक सरकार की योजनाएं भी पहुंचेंगी या फिर कागजी खानापूर्ति की रस्में आगे भी जारी रहेंगी।

आपको बता दें प्रदेश में पहाड़ी कोरवा सहित तकरीबन आधा दर्जन जनजातियां रहती हैं, जिन्हें संरक्षित करने के लिए भारत के राष्ट्रपति ने इन्हें गोद लिया है और इन्हें राष्ट्रपति का दत्तक पुत्र भी कहा जाता है।