क्या आप जानते है कि आग जलाने के लिए कौन सी गैस की आवश्यकता होती है, और किस गैस के नहीं होने से आग बुझ जाती है, इनका जवाब ऑक्सीजन गैस है, जिसे प्राण वायु भी कहा जाता है. यह हम स्कूलों की प्रयोगशालाओं में कराये जानेवाले छोटे-छोटे प्रयोगों में देखते और समझते हैं. आज जब कोरोना के मामलों के कारण देश में ऑक्सीजन और उसकी उपलब्धता के सम्बन्ध में चिंताओं और चर्चाओं का दौर है, लोगों को होम आइसोलेशन में रहने को कहा जा रहा है, खुले हवादार कमरे में घर पर चिकित्सकों की सलाह से उपचार की सलाह दी जा रही है. सांस के लिए फेफड़ों के व्यायाम की सलाह दी जा रही है, तब हमें ऑक्सीजन के सम्बंध, आवश्यकता, संरक्षण के सम्बंध में जानने, विचार की और अधिक आवश्यकता है.
कल ही एक न्यूज पोर्टल में प्रकाशित एक लेख पढ़ा कि कोरोना काल में हवा को शुद्ध करने के लिए विशेष अनुष्ठान करना चाहिए, तो पिछले दिनों ही एक टीवी डिबेट में एक मठाधीश ने मुझसे यह कहा, एक चम्मच घी, लकड़ी में डालने कर अनुष्ठान करने से 10 टन ऑक्सीजन उत्पन्न होती है, और जितना घी उपयोग होगा उतनी ही अधिक ऑक्सीजन बनेगी, तो कहीं यह भी दावा किया गया कि कंडे पर घी डाल कर जलाने पर 2-3 किलोमीटर हवा में बैक्टेरिया मर जाते हैं, तो किसी ने गाय के सांस छोड़ने, गोबर से भी ऑक्सीजन निकलने की बात भी कही. इस पर मैंने कहा कि यदि घी जलाने, कंडे जलाने, गोबर से ऑक्सीजन बनने लगती तो कोरोना की इस लहर में ऑक्सीजन की कमी से देश में कोई मौत ही नहीं होती और सरकार को रेल, हवाई जहाज, टैंकरों से ऑक्सीजन मंगाने, विदेशों से ऑक्सीजन मंगाने की जरूरत ही नहीं पड़ती.
पिछले सप्ताह ही एक खबर आई, किसी संस्था ने कोरोना से मुक्ति के लिए लोगों से घरों में विशेष अनुष्ठान करने की सलाह दी है. ऐसी बातों में कोई वैज्ञानिक तथ्य नहीं होता सिर्फ हवा हवाई दावे होते हैं जो लोगों में भ्रम व अंधविश्वास को बढ़ाने का ही काम कर रहे हैं.
देश के कुछ आध्यात्मिक चैनलों, मीडिया जगत के कुछ वेब साइट में मिथकों को विज्ञान सिद्ध करने के प्रयासों और आश्चर्यजनक दावों की धूम मची हुई है. अनेक स्वयंभू विशेषज्ञ कुछ प्राचीन मिथकों धारणाओं में नया विज्ञान ढूंढने की बात कह रहे हैं, और यदि वास्तविक विज्ञान के प्रमाण न मिले तो दावों, लोकोक्तियों, मिथकों को ही विश्व कल्याण,लोक कल्याण के नाम पर सही और वैज्ञानिक प्रचारित किया जा रहा है. कभी फलित ज्योतिष, कभी वास्तुशास्त्र और कभी योग के बरसों पुराने कुछ नुस्खों को अपनी वैज्ञानिकता का आवरण पहना स्वयं का ठप्पा लगा कर मैदान में उतर रहे है. जिन तथाकथित बाबाओं और स्वयंभू तांत्रिकों ने आधुनिक विज्ञान का क, ख, ग भी नहीं पढ़ा है, वे भी खुद को साईंटिस्ट के तौर पर प्रचारित कर भ्रम फैला रहे हैं.
वायु प्रदूषण और कोरोना महामारी के इस भीषण संकट में एक और दावा सुर्ख़ियों में है, अनुष्ठानों की वैज्ञानिकता का.
समाज में परम्परागत रूप से काफी पहले से चले आ रहे कुछ अनुष्ठानों को व्यक्तिगत आस्था के चलते अनेक कथित चमत्कारों से जोड़ कर बारिश करवाने से लेकर वायु प्रदूषण दूर करने और जरुरत पड़ने पर पक्षाघात, एड्स, कैंसर और मधुमेह और कोरोना जैसी गंभीर बीमारियों तक को दूर करने वाला साबित किया जा रहा है. और मजे की बात यह है कि यह किसी एक धर्म या सम्प्रदाय में नहीं है बल्कि किसी भी धर्म के पैरोकार स्वमहिमामंडन में किसी से पीछे नहीं हैं.
जब अनुष्ठानों की वैज्ञानिकता की चर्चा होती है तो अनेक लोग न आगे देखते हैं न पीछे, आस्थावश सुनी सुनाई बातों पर यकीन करने के साथ, अफवाह और प्रचार के प्रभाव में आ जाते हैं. एक खबर के अनुसार, बीते साल मेरठ में 500 क्विंटल से अधिक लकड़ियों को एक अनुष्ठान में जलाकर एक संगठन ने जबरदस्त प्रचार किया था कि वे विश्वकल्याण एवं पर्यावरण संतुलन का अचूक उपाय कर रहे हैं. क्या विश्वकल्याण के लिए सिर्फ धार्मिक अनुष्ठानों की ही आवश्यकता है, किसी अनुष्ठान के नाम पर लकड़ी, घी, अनाज, फल आदि मानव उपयोगी सामग्री को अग्नि के हवाले करना कितना उचित है, क्या ऐसे आयोजनों से ही विश्वकल्याण एवं पर्यावरण शुद्धिकरण हो सकता है. या वास्तव में विश्व के हित के लिए और भी नए तथ्यों पर,समाज के सभी हिस्सों को शामिल कर आपस में विचार विमर्श और आगे अनुसंधान करना चाहिए.
आजकल व्हाट्सएप और सोशल मीडिया का जमाना है. अनेक लोगों को भी अक्सर व्हाट्सएप पर ऐसे मैसेज देखने को मिल रहे होंगे, जिसमें बताया जाता है कि रूस के एक वैज्ञानिक शिरोविच ने दावा किया कि अनुष्ठान में आहुति देते समय में लकड़ी पर एक चम्मच घी डालने से ही एक टन ऑक्सीज़न पैदा होती है, किसी मैसेज में कहीं जापान के किसी वैज्ञानिक का कथित दावा पेश किया जा रहा कि गाय के कंडे पर घी डालने से 2-3 किलोमीटर की हवा में से सारे बैक्टीरिया मर जाते हैं.और ऐसे मेसेज वायरल कर दिये जाते हैं.
आश्चर्य की बात यह है कि ऐसे दावों के बारे में न तो रूस को कोई खबर होती है, न ही जापान को. कथित रूप से चमत्कारिक दावों पर भरोसा करने की आदत अभी भी बहुत सारे लोगों में है. इसी का असर है कि जैसे ही दो-तीन विदेशी नाम देखने को मिल जाये, सारे सन्दर्भ को लेकर एक कथित वैज्ञानिक प्रमाणपत्र मीडिया के एक हिस्से द्वारा अपने आप ही मिल जाता है, और स्वयं ही सीना तान कर कहते है, “देखा, हम को तो पहले ही से जानकारी है. हम पूरे विश्व के गुरु हैं. परन्तु विज्ञान को जानने वाले लोग ऐसे कथित दावों पर आँख मूँद नहीं सकते. इसलिए आइये जानें कि ऐसे अनुष्ठानों बारे में किये जा रहे ऐसे दावों में कितनी सच्चाई हो सकती है?
अनुष्ठानों की वैज्ञानिकता के इन दावों जो प्रमुख रूप से कही जाती हैं. पहला अनुष्ठानों से वायु प्रदुषण दूर होना, दूसरा विभिन्न संक्रमण/बीमारियाँ ठीक होना, तीसरा पर्यावरण संतुलन होना और प्रदूषण खत्म होना. आइए एक एक करके सभी दावों के सम्बंध में चर्चा करते है. एक खबर में यह बताया गया कि अनुष्ठानों में आम की लकड़ी प्रयुक्त होती है, जो जलने पर ऑक्सीजन देती है, आज कोई भी विद्यार्थी यह बता सकता है कि किसी भी वस्तु के दहन में ऑक्सीज़न का उपयोग होता है, कभी पैदा नहीं होती. अनुष्ठानों में सबसे पहले लकड़ियों को जलाया जाता है, साथ ही उसमें अन्य ज्वलनशील पदार्थ, घी, कपूर, तेल, खाद्यान्न, सुगन्धित द्रव्य, फल, फूल भी डाले जाते है.
यहाँ भी एक बात साफ है कि जब लकड़ी को जलाया जाता है तो कार्बन डॉयऑक्साइड गैस अन्य कई गैसें जिसमें सबसे नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, मीथेन आदि भी निकलती हैं. जो कार्बन डाई ऑक्साइड से 21 गुना ज्यादा खतरनाक है.
अब आइये देखते है कि लकड़ी के जलने पर जो धुआँ होता है, उसमें क्या छुपा होता है.
एक अध्ययन के अनुसार धुआं गैसों और महीन ठोस कणों के एक जटिल मिश्रण से बना होता है। जब लकड़ी और अन्य कार्बनिक पदार्थ जलते हैं, जिसमें 100 से अधिक ऐसे रसायन होते हैं जो विषाक्त साबित हो सकते हैं। जब सांस ली जाती है, तो ये महीन कण हमारी नाक,श्वासनली, फेफड़ों में जाते हैं, और अनेक लोगों को आंखों के लाल होने, जलन होने, आँसू आने,छींक आने ,खाँसी आने के कारण उस स्थान पर बैठने में तकलीफ होती है और वहॉं से हट जाना पड़ता है.
कुछ लोगों के लिए, यह धुँआ हृदय संबंधी समस्याओं जैसे कि एंजाइना और श्वसन संबंधी समस्याओं जैसे अस्थमा, और ब्रोंकाइटिस को भी बढ़ा सकता है. स्वास्थ्य के साथ पर्यावरण को भी नुकसान होता है. लकड़ी का जलना, हवा में प्रदूषण 25% तक बढ़ा सकता हैं. हवा में कार्बन मोनोऑक्साइड बढ़ जाती है. कार्बन मोनोऑक्साइड हमारे रक्त के हीमोग्लोबिन के साथ बंध सकता है, और ऑक्सीजन को शरीर में पहुंचने से रोक सकता है.
एक अध्ययन के अनुसार लकड़ी का चार घंटे तक दहन करने से उतनी कार्बन मोनोऑक्साइड का उत्सर्जन होता है, जितना की एक कार को 22 मील चलाने से होता है. आपने ऐसी घटनाएं सुनी होगी जिनमें ठंड के दिनों में कमरे में अंगीठी जला कर सोने से कमरे की ऑक्सीजन कम होती चली गयी और कार्बन मोनो ऑक्साइड बढ़ने से दम घुटने से अकाल मृत्यु हो गयी. ठंड में उत्तर भारत में हरियाणा, दिल्ली के आसपास पराली जलाने के कारण होने वाले प्रदूषण को भी याद करना चाहिए, जिसमें उन क्षेत्रों में प्रदूषण का सूचनाक बढ़ जाता है, जिस पर केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड ने भी समय समय पर एतराज जताया है.
एक और बात कि स्कूली किताबों में पर्यावरण अध्ययन भी एक विषय है जिसमें भी यही बताया जाता है कि किस तरह पेड़ काटना, बार-बार लकड़ी जलाना वायु प्रदूषण को बढ़ावा देना है. केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की गाइडलाइन्स के तहत भी इसे रेखांकित किया गया है, और कुछ माह पहले जब दिल्ली की हवा में प्रदूषण बढ़ रहा था तो सरकार एवं राष्ट्रीय पर्यावरण संरक्षण बोर्ड (एनजीटी) ने एडवायजरी जारी की थी, उसमें आम लोगों से, किसानों से यह आह्वान किया गया था कि वे पत्ते, कोयला, फसलों के अवशेष और लकड़ी को न जलाएं. पराली न जलायें, क्योंकि उससे दिल्ली, हरियाणा, पंजाब की हवा में प्रदूषण बढ़ रहा था. डीज़ल-पेट्रोल की गाड़ियों में खपत से भी प्रदूषण बढ़ने पर अध्ययन हुए.
स्कूली छात्र जिन्हें पर्यावरण अध्ययन की किताब में बताया जाता है कि लकड़ी, पराली जलाने से प्रदूषण होता हैं. खाद्यान्न, जल को सावधानी पूर्वक उपयोग करें, संसाधनों की बर्बादी न करें.
हम अपने रोजमर्रा की जिन्दगी से ऐसे सैकड़ो उदाहरण गिना सकते हैं, जो प्रदूषण बढ़ाते हैं तथा जिन्हें थोड़े से प्रयास और जागरूकता से बचाया जा सकता है. कुछ अनुष्ठानों पर चमत्कारिक दावों की गहराई में जाकर छानबीन करने से पता लगता है.कि वे सिर्फ कपोलकल्पित ही हैं. कहीं-कहीं पर एक दावा अक्सर और भी किया जाता है, जिसमें गंभीर बीमारियों के कुछ अनुष्ठानों द्वारा इलाज की बात की जाती है. लेकिन दुःख की बात यह है कि जो संस्थाएं ‘इस प्रकार की चिकित्सा’ के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च करने की बात जा ढिंढोरा पीटती हैं, वे कुछ लाख रुपए लगाकर इस सम्बंध में न तो कोई निष्पक्ष और सही शोध करती हैं, और न ही अपने दावों को किसी साइंस जर्नल में प्रकाशित करती है, जिससे उनके दावों की पुष्टि हो सके.
यहाँ तक कि कोरोना काल में कोरोना की दवाई बनाने, शर्तिया इलाज के भी अनेक दावे किए गए,जो मानकों में खरे नहीं उतरे. कुछ पेशेवर बाबा तो कभी योग से बीमारी ठीक करने के दावे करते करते, दवाइयों एवं अस्पतालों की आलोचना करते करते खुद ही दवाई बनाने-बेचने में लगे हैं, जबकि यदि योग से ही सभी बीमारी ठीक होती तो दवा बनाने की क्या जरूरत जैसे मूल प्रश्नों पर कन्नी काटने लगे हैं.
वर्तमान में ऐसी अनेक वेबसाइट हैं, जो इधर-उधर की खबरों को बड़े जोर शोर से प्रचारित करती हैं और अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग करती हैं, ये किस्म किस्म के तंत्र-मंत्र के नुस्खे ताबीज, कवच, बेल्ट बेचती हैं. एक वेबसाइट पर दावा किया गया था कि फ्रांस के वैज्ञानिक ने साबित कर दिया है कि अनुष्ठान में जले हुए पदार्थों से जो गैसे निकलती है, वे लाभदायक है. यह भी कहा गया एक वैज्ञानिक ने पाया कि अगर हम ऐसी जगह पर रहते हैं, जहाँ पर अनुष्ठान किया जा रहा हो तो एक घंटे तक टाइफाइड बुखार के कीटाणु मारे जाते हैं.
इसके बारे में सच्चाई बताती है फेमिनिस्ट सांइस ब्लॉग की लेखिका और विज्ञान की शोधार्थी, जिन्होंने ये साफ किया है कि ये सारी बातें आधारहीन भ्रम के अलावा और कुछ नहीं है.
विज्ञान के नाम पर ऐसे भ्रामक दावों से बचना चाहिए और किसी भी बात को सिर्फ इस लिए नहीं मानना चाहिए कि ये मिथक अनेक वर्षो से कायम है. मानवता और प्रकृति की भलाई के लिए किये जाने वाले प्रत्येक कार्य को भी ‘अनुष्ठान’ बल्कि यज्ञ की संज्ञा दी जाती है. यदि वास्तव में विश्व कल्याण के लिए कार्य करने की इच्छा है तो अधिक से अधिक पेड़-पौधे लगाएं. एक स्वस्थ पेड़ हर दिन लगभग 230 लीटर ऑक्सीजन छोड़ता है, जिससे सात लोगों को प्राण वायु मिल पाती है. यदि हम इसके आसपास कचरा जलाते हैं तो पेड़ की ऑक्सीजन उत्सर्जित करने की क्षमता आधी हो जाती है.
पर्यावरण संतुलन के लिए वृक्षारोपण से अधिक अच्छा अनुष्ठान कोई नहीं हो सकता है.
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दूसरा पेट्रोल ,डीज़ल जैसे प्रदूषण करने वाले ईंधन के स्थान पर कम प्रदूषण उत्पन्न करने वाले वैकल्पिक इंधनों के अनुसंधान पर ध्यान दें.और ऐसे साधनों का उपयोग कम करें. तीसरा खाद्यान्न,प्राकृतिक संपदा,वन,वन्यजीवन का संरक्षण करें,और प्राकृतिक जीवन शैली की ओर बढ़े. चौथा प्लास्टिक, पॉलीथिन जैसी प्रदूषणकारी अन्य वस्तुओं के रिसाइकल, रीयूज के सिद्धांत को अपना कर पृथ्वी में होने वाले प्रदूषण को कम करने का प्रयास जारी रखें. साथ ही अंधविश्वास एवमं सामाजिक कुरीतियों को हटाने तथा वैज्ञानिक चेतना बढ़ाने का काम करें. ताकि आने वाले समय मे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त समाज का विकास हो सके.