संत कबीर जैसे देखते थे वैसे लिखते थे. उन्होंने अपने दोहे में धार्मिक कर्मकांड, अंधविश्वास और पाखंड का जमकर खंडन किया. उन्होंने धर्म के ठेकेदारों को जोरदार लताड़ा. संत कबीर की पहचान एक प्रगतिशील कवि के रूप में हैं. उनके दोहे जीवन को सही राह में ले जाते हैं. हर साल ज्येष्ठ मास में पूर्णिमा तिथि को संत कबीर की जयंती मनाई जाती है. इस बार उनकी जयंती 24 जून को मनाई जा रही है. कबीर दास का जन्म 1398 में माना जाता है. इन्होंने समाज में व्याप्त भ्रांतियों और बुराइयों को दूर करने में अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया. इनकी मृत्यु 1518 में मगहर में हुई थी.
पाखंड, कर्मकांड, धार्मिक अंधभक्ति का जमकर खंडन करने वाले कबीर प्रगतिशील कवि हैं. संत कबीर के दोहे में दिखावा बिलकुल नहीं है. उनके दोहे बोलचाल की अत्यंत सरल भाषा में थे, जिसके कारण इनके दोहों ने लोगों पर व्यापक प्रभाव डाला. आज भी कबीर दास के दोहे जीवन जीने की सही राह दिखाते हैं. तो आइए पढ़ते हैं और विचार करते है उनके उनके प्रमुख दोहे.
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पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय.
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय.
हिंदू कहें मोहि राम पियारा, मुस्लिम कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मरे, मरम न कोउ जाना.
कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ,
जो घर फूंके आपनौ, चले हमारे साथ.
माटी का एक नाग बना के, पूजे लोग लुगाया,
जिंदा नाग जब घर में निकले, ले लाठी धमकाया.
जिंदा बाप कोई न पूजे, मरे के बाद पुजवाया,
मुठ्ठी भर चावल लेके, कौवे को बाप बनाया.
यह दुनिया कितनी बावरी है, जो पत्थर पूजे जाय,
घर की चकिया कोई न पूजे, जिसका पिसा खाय.
कांकर पाथर जोरि के ,मस्जिद लई चुनाय.
ता उपर मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय.
पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार,
वा ते तो चाकी भली, पीस खाय संसार.
जाति न पूछो साधू की पूछ लीजिए ज्ञान,
मोल करो तलवार का पड़ा रहने दो म्यान.
मुंड मुड़या हरि मिलें, सब कोई लेई मुड़ाय,
बार बार के मुड़ते, भेंड़ा न बैकुंठ जाय.
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय.
माला फेरत जुग भया, गया न मन का फेर,
कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर.
लाडू लावन लापसी, पूजा चढ़े अपार,
पूजी पुजारी ले गया, मूरत के मुह छार.
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