कैलाश रविदास- वो कैसी किस्मत थी, कैसी विपदा थी. चारों तरफ से चीख के थपेड़ों की चुभती गूंज, उखड़ती सांसों की कराह, कब्र की जमीं चिता से रोशन और आसमान आसुंओं से भरा पड़ा था. हुकूमत सियासत में मशगूल और जीवन की धरा अस्पताल की दहलीज पर सांसें गिन रही थी. सिस्टम से नाराजगी और सांसों में आक्रोश की आग सुलग रही थी. वक्त गुजरा, थमी चिताएं और धीरे-धीरे मन की तपिश ठंडी होती गई. अब फिर से मनाहियों के बाद लापरवाही का धुआं गुबार बन रहा है. कब्रगाहों को फिर लापरवाहियों तले सजाया जा रहा है. इंसान इंसानों के लिए बेफिक्री तले मौतनुमा जाल बिछाता जा रहा है.

सुखमय मुल्क ने कोरोना की पहली और दूसरी लहर के बीच खून के आंसुओं से नहाया है. कोरोना की अनगिनत क़त्लेआम भरे गुनाहों को भुगता है. इस कातिल के सामने सरकारें और न्यायालय भी नतमस्तक थे. इसके गुनाह सरेआम थे, लेकिन गुनाह को समझते तक लाशों की ढेर लग गई थी. कोरोना रूपी मौत का तांडव सरेआम अपनों को अपनों से बेरहमी से छीन रहा था, हिम्मत अंधेरे सी दरवाजे के पीछे हिफ़ाजत की भीख मांग रही थी. सिस्टम की तीखी मनाहियां और पेट को कचोटती भूख बन्दिशों के बीच मिट्टी चाट रही थी. जिंदगी की सुलगती आग सफतकोसी में लपटें बनकर उभरती जा रही थी. वो वक्त था, इंसानी जिन्दगी में हर तबक़े की इंतेक़ाम का, जो महरूमियत तले जिए जा रहा था.

चीख, पुकार, कब्र और जलती चिताएं अपनों की मातम और बेरूखी के बीच सांसें ले रही थी. कब्र में लाश और धधकती चिताओं से ज़मीं रौशन तो थी, लेकिन आसुंओं की धार से आसमानी सितारों की चमक बुझी हुई थी. होंठ जिंदगी में छाई मातम से सूखे थे और मन में अनदेखी खंजर से घाव कर रही थी. कोरोना रूपी काल से मानो सीधा सादा जीवन समाधि ले रहा था, जिंदगी की धुंध अंधकार में हिम्मत की साख जीवन बन रही थी.

वक्त थमता गया, पहली लहर गई, दूसरी लहर गई, तबाहियों में लगाम लगी. सरकारें कोरोना पर जीत की थपकियां लेती गईं, लेकिन तीसरी लहर को हम सबकी नाकामियां और लापरवाही निमंत्रण दे रही है, क्योंकि सरकारी घोषणाएं कागजी मिलियन और ट्रिलियन पर होती हैं, भुगतना हमको ही पड़ता है. हम किसी अमेरिका, इटली या जापान में नहीं हैं, जो डॉक्टरों की बाढ़ आ जाएगी. ग्रामीण इलाकों में अस्पताल और डॉक्टर दीया लेकर तलाशने निलकोगे तो सिर्फ सिस्टम और हुकूमत का अंधकार मिलेगा, जिसमें सिर्फ मौतनुमा कुंआ है, उस कुएं में न पानी है और न ही जान बचाने के लिए सीढियां हैं. बस मौत का कुंआ इंसानी मौत लेकर जमीं पर समाने के लिए तैयार रहेगा.

उफ्फ ये भागती-दौंड़ती और चकाचौंध सी जिंदगी, हुकूमत और जिम्मेदार बन्दिशें बनाते हैं, मास्क लगाने की अपील करते हैं, लेकिन भीड़ की जिंदगी भी न वाकई क्या मजे की जिंदगी है. हमने अनगिनत करीबियों को पल भर में खो दिया, लेकिन वाह रे भाग-दौड़ की रफ्तार. न चेहरे पर मास्क और वैक्सीन लगवाए हैं. ये फेस पर आधे-अधूरे मास्क हमारी पूरी जिंदगी को फिर मरहम की दहलीज में सांसों के लिए खींचती दिखेगी. कब हमारी लापरवाहियां हमें ही वायरस से सीधा रू-ब-रू करा दे, लेकिन वाह रे भीड़ और वाह रे मजा.

हमारी और उन सबकी जिंदगी अनमोल है, मौसम सुहाना है, नदियां, पहाड़, झरने और मनमोहक वादियां हमें बुला रही हैं, अपने गोद में बिठाना चाह रही हैं, लेकिन इन सबका का क्या है, आज नहीं तो कल फिर मिल जाएंगे. मौसम हर पल बदलते रहता है, ये कल फिर सुहाने होंगे, लेकिन कल को देखने के लिए आज को संजोना पड़ेगा, क्योंकि हर गांव, हर शहर, हर कस्बा और न जानें कितने मुल्कों से कितने करोड़ जिंदगियां मिट्टी में मिल गईं. ऐसे हाल में भी अगर हम खुद की ही चिंता नहीं करेंगे, तो फिर से चिताएं बनना तय है.

लेखक- कैलाश रविदास…✍️