पर्यावरण को कितना ही नुकसान पहुंचाएं पर हरियाली सब को चाहिए .राष्ट्रवाद की बात बहुत करेंगे पर यूएसए की हरी झंडी मिलते ही दौड़ लगाएंगे. ठीक इसी तरह हिंदी की वकालत सब करते हैं पर जब इसे लागू करने की बात होती है तो पड़ोस में शहीद ढूंढते हैं.

खासकर अँग्रेज़ी के मिथ्याभिमान में डूबी आजकल की पीढ़ी हिंदी के दो शब्द तक लिखना भूल गयी है .इनसे कहिये उन्यासी तो दांये- बांये झाँकने लगेंगे!

आज एक छवि बन गयी है कि ‘प्रोफेशनल्स’ की भाषा अंग्रेजी है और बाकियों की हिंदी या उनकी प्रादेशिक भाषा!

ऐसी ही सोच -समझ ने हिंदी को अपाहिज बना डाला है. बाकी कसर सोशल मीडिया ने पूरी कर दी जिन्हे कुछ हिंदी आती थी, वो भी अब ‘हिंगलिश ‘ वायरस ‘के शिकार हो गए.

अँग्रेज़ी स्वामी भाषा है हिंदी दास भाषा है. इस प्रवृत्ति ने दोनों ही भाषाओं का नाश किया. अँग्रेज़ी नौकरी के हिसाब से पढ़ते हैं और हिंदी बस बोलते हैं …हिंगलिश लिखते हैं !

ख़ैर, ऐसे मिथकों को कोई और नहीं बहुत से प्रोफेशनल्स ही तोड़ रहे हैं .कविता कोश के संस्थापक ललित कुमार ही नहीं ढेर सारे ऐसे लोग बहुत सुंदर हिंदी साहित्य रच रहे .ये प्रोफेशनल्स बहुत सहज और सरल ढंग से अपूर्व साहित्य रच कर अपनी छाप छोड़ रहे .’करौं काह मुख एक प्रसंसा…’मैं एक मुख से क्या प्रशंसा करूँ?

अशोक बाजपई ,सुदीप बनर्जी जैसे कई आईएएस इस देश के बड़े कवि हैं .आईपीएस विभूति नारायण राय, विश्वरंजन जैसे साहित्यकार रहे ,उर्दू के शायर गौहर रज़ा बड़े वैज्ञानिक हैं. इसी तरह इंजीनियर, डॉक्टरों की सूची है.

अपने शहर रायपुर में भी जब मिथकों को टूटता हुआ देखता हूँ, खासकर नयी पीढ़ी के लोगों में तो बहुत खुशी होती है. बहुत से लोगों को इस दिशा में प्रयास करते देख उम्मीद बंधती है.

हमारे शहर के वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉ जयेश कावड़िया ने अपनी पी.जी डॉक्टरी में की तो बाद में पत्रकारिता में भी पी.जी हिंदी भाषा में ही नहीं की बल्कि सर्वोच्च अंक भी प्राप्त किये.

कोरोना काल के ठीक पहले सुप्रसिद्ध सिंघानिया क्लिनिक की डॉक्टर सारिका सिंघानिया की काव्य प्रतिभा से वास्ता हुआ. उनकी कविताओं का संग्रह ‘ मुझे कैसे पता न चला ‘ पुस्तक से उनकी बहुमुखी प्रतिभा अवतरित हुई.

हम उन्हें एक सफल पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल प्रोफेशनल के तौर पर ही जानते थे. पर ‘मुझे कैसे पता न चला’ से कवियत्री डॉ सारिका सिंघानिया का व्यक्तित्व उनकी सजीव -सुंदर कविताओं के साथ उभरकर सामने आया .

कवियत्री ने अपने शब्दों को पिरो कर जिस सुंदरता से पाठकों के सामने प्रस्तुत किया उससे उनकी कविताओं की विशिष्टता ही नहीं उनकी बहुमुखी प्रतिभा भी सामने आती है .

कविताओं की समीक्षा अलग -अलग कसौटी पर हो सकती है पर मेडिकल प्रोफेशन की एक और डॉक्टर जिस तन्मयता, सुंदरता, तल्लीनता से काव्य रच रही हैं, उसका निश्चित तौर पर पूरे उत्साह वर्धन के साथ स्वागत होना चाहिए ताकि उनकी अगली पुस्तक भी जल्दी आये.

ताकि सिर्फ़ अँग्रेज़ी के पीछे आँखों पर ‘कैरियर’ की पट्टी बांधे भागती पीढ़ी को हिंदी का महत्व समझ आये .

‘मुझे कैसे पता न चला’ पढ़िए सारिका जी की सोच और शब्दों का दायरा बहुत व्यापक है .कल्पनातीत रूप से दूर- दूर तक फैला.

उम्मीद है उनकी पंक्तियाँ नई पीढ़ी के प्रोफेशनल्स को हिंदी में लिखने -पढ़ने और कुछ रचने के लिए प्रेरित ही नहीं मार्गदर्शन भी करेंगी.

लेखक – अपूर्व गर्ग

(लेखक राजनीतिक मामलों के जानकार हैं ).