रायपुर. वैदिक ज्योतिष और हिन्दू धर्म से जुड़ी मान्यता के अनुसार पौष सूर्य का माह कहलाता है. कहा जाता है कि इस मास में सूर्य देव की आराधना से मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है. इसलिए पौष पूर्णिमा के दिन पवित्र नदियों में स्नान और सूर्य देव को अध्र्य देने की परंपरा है.
सूर्य और चंद्रमा का अद्भूत संगम पौष पूर्णिमा की तिथि को ही होता है. इस दिन सूर्य और चंद्रमा दोनों के पूजन से मनोकामनाएं पूर्ण होती है और जीवन में आने वाली बाधाएं दूर होती हैं.
पौष पूर्णिमा व्रत और पूजा विधि
– पौष पूर्णिमा के दिन प्रातःकाल स्नान से पहले व्रत का संकल्प लें.
– पवित्र नदी या कुंड में स्नान करें और स्नान से पूर्व वरुण देव को प्रणाम करें.
– स्नान के पश्चात सूर्य मंत्र का उच्चारण करते हुए सूर्य देव को अर्घ्य देना चाहिए.
– स्नान से करने के बाद भगवान मधुसूदन की पूजा करनी चाहिए.
– किसी जरुरतमंद व्यक्ति या ब्राह्मण को भोजन कराकर दान-दक्षिणा दें.
– दान में तिल, गुड़, कंबल और ऊनी वस्त्र विशेष रूप से दें.
पौष पूर्णिमा का महत्व
पौष माह की पूर्णिमा को मोक्ष की कामना रखने वालों के लिए बहुत ही शुभ मानी जाती हैं. क्योंकि पौष पूर्णिमा के साथ ही माघ महीने की शुरुआत होती है. माघ महीने में किए जाने वाले स्नान की शुरुआत भी पौष पूर्णिमा से ही हो जाती है. शास्त्रों में इसकों लेकर मान्यता है कि जो व्यक्ति इस दिन विधिपूर्वक प्रातरूकाल स्नान करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है. वह जन्म-मृत्यु के चक्कर से कोसों दूर चला जाता है. यानी उसे मुक्ति मिल जाती है. इस दिन से कोई भी काम करना शुभ माना जाता है.
माता शाकंभरी को देवी दुर्गा की ही रूप माना जाता है. माना जाता है कि पौष मास की पूर्णिमा तिथि को मां दुर्गा ने मानव कल्याण के लिए शाकंभरी रूप लिया था. मां दुर्गा के इस अवतार के पीछे एक कथा है.
इसलिए माता दुर्गा ने लिया शाकंभरी अवतार
दानवों के उत्पात से त्रस्त भक्तों ने कई वर्षों तक सूखा एवं अकाल से ग्रस्त होकर देवी दुर्गा से प्रार्थना की. तब देवी इस अवतार में प्रकट हुईं, उनकी हजारों आखें थीं.
अपने भक्तों को इस हाल में देखकर देवी की इन हजारों आंखों से नौ दिनों तक लगातार आंसुओं की बारिश हुई, जिससे पूरी पृथ्वी पर हरियाली छा गई.
यही देवी शताक्षी के नाम से भी प्रसिद्ध हुई एवं इन्ही देवी ने कृपा करके अपने अंगों से कई प्रकार की शाक, फल एवं वनस्पतियों को प्रकट किया. इसलिए उनका नाम शाकंभरी प्रसिद्ध हुआ.
पौष मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से शाकंभरी नवरात्र का आरंभ होता है, जो पौष पूर्णिमा पर समाप्त होता है. इस दिन शाकंभरी जयंती का पर्व मनाया जाता है. मान्यता के अनुसार इस दिन असहायों को अन्न, शाक (कच्ची सब्जी), फल व जल का दान करने से अत्यधिक पुण्य की प्राप्ति होती हैं व देवी दुर्गा प्रसन्न होती हैं.
ऐसा है माता शाकंभरी का स्वरूप
मार्कंडेय पुराण के अनुसार देवी शाकंभरी आदिशक्ति दुर्गा के अवतारों में एक हैं. दुर्गा के सभी अवतारों में से रक्तदंतिका, भीमा, भ्रामरी, शाकंभरी प्रसिद्ध हैं. दुर्गा सप्तशती के मूर्ति रहस्य में देवी शाकंभरी के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है.
मंत्र
शाकंभरी नीलवर्णानीलोत्पलविलोचना।
मुष्टिंशिलीमुखापूर्णकमलंकमलालया।।