जमीअत उलमा-ए-हिंद के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी के एक मीडिया को दिए इंटरव्यू पर सोशल मीडिया में पिछले दिनों काफी चर्चा रही. इस इंटरव्यू से हटकर मुझे उनके पिता की याद आई जिनकी चर्चा अब नहीं होती. मुझे उनके पिता सय्यद हुसैन अहमद मदनी याद आये. अरशद मदनी के बयानों से हम उन्हें जानते हैं पर उनके पिता का ज़िक्र कितना होता है?
दरअसल ये देश स्वाधीनता संग्राम क्या देश के मौजूदा विकास में भी हिन्दुस्तानी मुसलमानों की भूमिका पर बात नहीं करना चाहता फिर सय्यद हुसैन अहमद मदनी तो भूली बिसरी बात है. आज़ादी की लड़ाई में अशफाक़उल्लाह खान, मौलाना आज़ाद जैसे कुछ नाम लिए जायेंगे. अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान तो अब विदेशी हैं. मुज़फ़्फ़र अहमद को सिर्फ कम्युनिस्ट मानेंगे.
कितना ही इतिहास बदला जाये पर 1857 क्रांति से पहले से लेकर आज़ादी की लड़ाई तक ढेरों अब्दुल हमीदों के शहीद होने तक भारतीय मुसलमानों की बराबरी की भूमिका का इतिहास दर्ज़ रहेगा. ये और बात है हम आसफ़ अली, अब्बास अली, मौलाना मज़हरुल हक़, हसरत मोहानी, अली बंधु जैसे न जाने कितने नाम हिन्दुस्तान के इतिहास के नीचे दफ़न हैं. कितनों की जयंती -पुण्यतिथि मनाई जाती है ?
इस देश को चाहिए कम से कम सीमान्त गाँधी की पुण्य तिथि पर उनको याद कर उनकी कुर्बानियों का सम्मान कर दो मिनट का मौन रखे ! पर हिन्दुस्तान के मुसलमानों के सवाल पर ही पूरे हिंदुस्तान में ख़ामोशी छा जाती है और देश मौन हो जाता है ?
कितना ही मौन रहिये, देश की आज़ादी ही नहीं विकास और हर क्षेत्र में आम मुसलमान का खून, पसीना और आंसू शामिल है, तभी इतना सुन्दर हिन्दुस्तान है. कितना ही मौन रहिये, सलीम अली जैसा पक्षी वैज्ञानिक, कलाम जैसा मिसाइल मैन कहाँ से लाएंगे ?
कितना ही मौन रहिये, दिलीप साहब से लेकर शबाना आज़मी, नसीर, इरफ़ान दूसरा नहीं मिलेगा. नौजवानों में शाहरुख़ जैसा प्यार बांटने वाला दूसरा कौन है ? दूसरा इरफ़ान हबीब नहीं मिलेगा. कैफे आज़मी से लेकर बशीर बद्र चमन में बार बार पैदा नहीं होते.
रफ़ी साहब की आवाज़ कोई कभी न भुला पायेगा. क्रिकेट में सईद मुश्ताक़ अली, पाटोदी, किरमानी, अज़हर, कैफ़, पठान और हॉकी में मोहम्मद शाहिद, ज़फर इक़बालों को देश कैसे भूल सकता है ?
क्रिकेटर मोहम्मद शमी को कितना ही ऑनलाइन ट्रोल करें, पर वतन के लिए वो पूरे दिल से खेलते ही रहेंगे पर जब राजनीति का लक्ष्य इतिहास को अफ़साना बनाना हो तो सब कुछ संभव है. सब कुछ छिपाया जा सकता है, सब कुछ दबाया जा सकता है, पर्दे पर पर्दे डालते रहो और किसी एक खास व्यक्ति के बयान को पकड़ कर पूरे समाज को दोषी ठहरा दो ! सच बताने वाला कोई नहीं . अब तो झूठे भी फैक्ट फाइंडिंग मशीन लगाकर झूठ पर मुहर लगा रहे.
दोस्तों, सच और तथ्य तक पहुँचने के लिए मशक़्क़त करनी होगी. ये मेहनत करनी चाहिए. इंटरनेट इसी पूँजी की विकृत पैदाइश है ये आपका पूरा साथ नहीं देगा. सही इतिहास और दबी बातों के लिए पुस्तकों के पन्ने पलटने ही चाहियें. भ्रमण कर पूरी पड़ताल करनी चाहिए और इतिहास गल्प न बने ये कोशिश करनी चाहिए.
जमीअत उलमा-ए-हिंद के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी के पिता सय्यद हुसैन अहमद मदनी ने दो राष्ट्रों के सिद्धांतों को ठुकराकर बार बार जिन्ना को कैसा करारा जवाब दिया. ये बात पाकिस्तान कभी हज़म न कर पाया और हिन्दुस्तानी मीडिया ने हज़रत मौलाना मदनी के संघर्षों को कभी रेखांकित करने की ज़रूरत न समझी.
माल्टा द्वीप में एक जेल में रेशम पत्र षड्यंत्र में अपने गुरु की सेवा करते ही उन्होंने सजा नहीं काटी बल्कि वो ऐसे इस्लामी विद्वान थे जिन्होंने आज़ादी के लिए जोरदार ज़मीनी लड़ाई लड़ी. सय्यद हुसैन अहमद मदनी जब माल्टा में थे वहां सजा हुई. कराची में दो बरस की क़ैद हुई. इसके बाद 1931-32 में सजा मिली. 1940 में गिरफ़्तार हुए और 1945 तक नज़र बंद रहे.
पाकिस्तान के सवाल पर जब लोगों ने उनसे जिन्ना से मिलने के लिए दबाव बनाया था, तो उन्होंने जवाब दिया था -”मैं काले और गोरे दोनों तरह के अंग्रेज़ों से नफ़रत करता हूँ. जिन्ना काला अंग्रेज है और और अंग्रेज सिर्फ अपनी ही बहबूदी चाहता है ”
पहले विश्व युद्ध के दौरान मक्का में महमूद अल-हसन का पता पाने सय्यद हुसैन अहमद मदनी को गिरफ़्तार किया गया था. ब्रिटिशों ने उन्हें गोली से उड़ा देने तक की धमकी दी पर मदनी नहीं झुके थे.
हिन्दी के कथाकार, निबन्धकार, पत्रकार और सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने अपनी पुस्तक “दीप जले-शंख बजे” में जिस तरह मदनी साहब का ज़िक्र किया ऐसा दिल से शायद ही किसी ने याद कर श्रद्धांजलि दी हो.
कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने लिखा है कि विदेशी कपड़ों की पिकेटिंग आंदोलन में मदनी साहब ने इस प्रभावशाली ढंग से आंदोलन को सफल बनाया कि मैंने उनके पैर छुए. मिश्र जी लिखते हैं ” मदनी साहब मीठे मुलायम थे ,पर इतने सख़्त कि पहाड़ भी शर्माएँ. तभी तो वे अपने राजनीतिक जीवन में शहीद की ज़िंदगी जी सके ” वे जीते जी शहीद थे, आचार्य-संत थे, संक्षेप में एक महान व्यक्तित्व – एक ऊंची शख्सियत थे पर उनकी ज़िंदगी के इंसानी पहलू इतने मुलायम और मनोरम थे कि उनके पास बैठकर लगता कि मैं चटाई पर नहीं. उनकी गोद में बैठा हूँ. ओह कितने मीठे, कितने प्यारे, कितने भले और कितने भोले इंसान थे वे !”
बस बात यही है इस देश के इतिहास में बड़ी संख्या में सय्यद हुसैन अहमद मदनी जैसे ‘मीठे – प्यारे -भोले -भले ‘ हिन्दुस्तानी मुसलमानों की कुर्बानियां भी दर्ज़ हैं, जिन्हे कन्हैयालाल मिश्र जी जैसी भावनाओं से याद करने की ज़रूरत है.
“सय्यद हुसैन अहमद मौलाना मदनी जीते जी शहीद थे, आचार्य-संत थे, मीठे मुलायम थे, पर इतने सख़्त कि पहाड़ भी शर्माएँ ” – कन्हैयालाल मिश्र
लेखक – अपूर्व गर्ग