बिलासपुर. डॉक्टर डी एन तिवारी नहीं रहे. गुरुघासीदास विश्वविद्यालय की जमीन और प्रारंभिक शिक्षा उन्हीं की देन है. उनके पहले विश्वविद्यालय का कार्यालय नेहरू चौक पर स्थित एक ‘ऋषि भवन’ में था और कक्षाएं PGBT कॉलेज में लगती थीं. यह उनका ही माद्दा था, कि ज्वाइन करने के कुछ ही महीनों के अंदर उन्होंने सरकार से कोनी में जमीन ले ली और विश्वविद्यालय को एक पहचान दी.

1987 की बात है यह, जहां विश्वविद्यालय स्थित है उसे भाटा लैंड यानि की बंजर भूमि कहा जाता था. लोगों का मानना था, कि यहां कुछ उग नहीं सकता. उन्होंने आते ही इतना प्लांटेशन करवाया कि आज भी हमारे विश्वविद्यालय की सबसे पहली पहचान इसके हरे भरे परिसर के कारण होती है.

डॉक्टर तिवारी लीक से हट कर काम करते थे. कहते हैं, नौतपा के समय पौधरोपण नहीं करना चाहिए. उन्होंने नौतपे में ही पौधरोपण करवाया और वो भी बेहतरीन सफलता दर के साथ. उन्होंने हमसे कहा था कि नौतपे में जो पौधे सर्वाइव कर जाते हैं, वे कभी मरते नहीं. जितनी कठिन परिस्थितियां होती हैं सरवाईवल स्टिंट उतनी मजबूत हो जाती है, फिर चाहे वो पौधों की हो या मनुष्य की.

हमारी प्रोफेशनल लाइफ के वो फॉरमेटिव ईयर्स थे. उनसे बहुत कुछ सीखा, जो बहुत काम आया. 23 वर्ष की उम्र में उन्होंने मुझे यूनिवर्सिटी गर्ल्स हॉस्टल का फाउंडर वार्डन बना दिया था. कई बार बहुत टेंशन हो जाता था. एक बार उन्होंने मुझसे कहा था- टेंशन्स को इंजॉय करना सीखो. यह भी कहा कि लोग भी पीछे उसके पड़ते हैं, जिनके आगे निकल जाने का डर होता है, जिनसे वो ईर्ष्या करते हैं.

जब तक कोई तुम्हारे पीछे न पड़ा हो, जब तक तुम्हें कोई टेंशन न दे रहा हो, इसका मतलब है कि तुम ऐसा कुछ नहीं कर रहे, जिससे लोगों को तुम्हारे आगे निकल जाने का डर हो. उन्होंने कहा, जिंदगी में कभी भी सहानभूति के नहीं, बल्कि हमेशा ईर्ष्या के पात्र बनो. जिस दिन तुमने लोगों के पीछे पड़ना शुरू कर दिया, उस दिन समझो कि तुम्हारा आगे बढ़ना रुक जाएगा. उनकी बताई ये सारी बातें मै हमेशा याद करती हूं और अपने छात्र और युवा सहयोगियों के साथ भी साझा करती हूं.

विश्वविद्यालय में शिक्षकों का पहला बैच उसी समय नियुक्त हुआ था. जाति, धर्म, क्षेत्र, विचारधारा, पैसा, सोर्स सिफारिश से अलग योग्यता के आधार पर नियुक्तियां हुई थीं. नहीं तो हममे से कई तो विश्वविद्यालय में नौकरी करने आ ही नहीं सकते थे.

उनकी दूरदृष्टि ही थी, कि इस क्षेत्र में किसी भी सरकारी शैक्षणिक संस्थान में और संभवतः निजी संस्थानों में भी कंप्यूटर शिक्षा का पहला पाठ्यक्रम PGDCA के रूप में 1990 में प्रारम्भ किया. उस कोर्स के लिए बेहद मारा मारी होती थी. शुरु के वर्षों के छात्र आज देश विदेश में बड़े-बड़े पदों पर हैं. छत्तीसगढ़ में कंप्यूटर शिक्षा की शुरुआत का श्रेय उनको ही जाता है.

कुलपति रहते हुए वे बिना किसी तामझाम के टूटी-फूटी बैरकों में से एक बैरक में स्थित एक कमरे में बिना कूलर के एक साधारण सी कुर्सी में बैठे रहते थे. मुझे उनकी छात्र और बाद में उनके साथ शिक्षक के रूप में भी कार्य करने का मौका मिला. जब वे कुलपति बने तो हम एमफिल में पढ़ रहे थे. हफ्ते में 3 दिन हमारी क्लास उनके चेंबर में होती थी. पूरा एक पेपर जो आदिवासियों पर था, हमने अपने कुलपति से ही पढ़ा था.

याद करने को बहुत कुछ है, पर सबकुछ लिखना संभव नहीं है. आगे आने वाले वर्षों में गुरुघासीदास विश्वविद्यालय में तमाम भवनों की आधारशिला रखने के लिए जमीन उन्होंने ही प्रदान की थी और मेरे जैसे बहुत से युवा शिक्षकों को विश्वविद्यालय की संस्कृति से परिचित भी कराया था.

लेखक – डॉक्टर अनुपमा सक्सेना

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