कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक बहुआयामी व्यक्तित्व के अज्ञेय जी का जन्मदिन है.
साहित्य अकादमी, भारतीय ज्ञानपीठ जैसे न जाने कितने अवार्ड मिले. आज हिंदी साहित्य उन्हें पूरी श्रद्धा से याद कर रहा है. पर हिंदी की खेमेबंदी में निर्मम आलोचनाओं से वे भी न बचे. हिंदी के इतिहास में बहुत कुछ दर्ज है.
थानवी साहब की पुस्तक ‘अपने अपने अज्ञेय’ पढ़कर ही समझ सकते हैं, अज्ञेय को लेकर कितने अलग -अलग ख़्याल हैं.
पर आज मुझे आल इंडिया रेडियो में प्रसारित अश्कजी का एक विवादित लम्बा इंटरव्यू याद आया जो बाद में प्रकाशित भी हुआ था.
याद आया जब रविंद्र कालिया ने उपेंद्र नाथ अश्क का उनके 70 साल पूरे होने पर साक्षत्कार लिया तो अज्ञेय से सम्बंधित सवालों पर अश्कजी ने अपने मिज़ाज के मुताबिक जवाब दिए. पढ़कर लगा कितनी प्रतिद्वंदिता कितना किस कदर विरोध और कितनी निर्मम आलोचना हुआ करती थी..
अश्कजी रविंद्र कालिया से इंटरव्यू के दौरान अज्ञेय जी पर कहते हैं -:
अज्ञेय अंग्रेज़ी में सोचते और हिंदी में लिखते हैं, इसलिए उनकी भाषा क्लिष्ट हो जाती है, सरल सी बात को क्लिष्ट कर देते हैं.
नाटक उन्होंने लिखने की कोशिश की उनसे बने नहीं. उपन्यास उन्होंने तीन लिखे दो आधे मौलिक और तीसरा ‘अपने अपने अजनबी’ उन्होंने हिंदी में अस्तित्ववाद के प्रवर्तक बनने के चक्कर में लिखा कहानियाँ उन्होंने ज़रूर कुछ अच्छी लिखीं हैं, या फिर कविताएँ. लेकिन कोई नहीं कह सकता कि कितनी मौलिक हैं और कितनों के विचार उन्होंने चुराए हैं..
दिल के निहायत छोटे. अपने बराबर के किसी समकालीन की कभी उन्होंने प्रशंसा नहीं की..
– कालिया जी उनसे कहते हैं, आपके मन में बहुत कटुता है. अज्ञेय को आप लेखक ही नहीं मानते ?
— अश्कजी कहते हैं कुछ कहानियाँ और कविताएँ उन्होंने अच्छी लिखी हैं. लेकिन उन्हें मैं लेखक से बड़ा पत्रकार मानता हूँ. अज्ञेय का रचनाकार कवि, कथाकार, विचारक तथा पत्रकार के बीच दुविधा ग्रस्त रहा है और धीरे-धीरे कथा और कविता को छोड़कर पत्रकारिता की राह लग गया है..
रविंद्र कालिया फिर पूछते हैं ‘पर उनमे कोई गुण तो नज़र आया होगा..?
अश्क –आदमी वे सुंदर हैं. ये गुण क्या कम है…