कुमार इंदर, जबलपुर। मध्य प्रदेश नेशनल हेल्थ मिशन का एक लेटर इन दिनों प्रदेश के अस्थायी स्वास्थ्य वर्करों के लिए सरदर्द बना हुआ है, इस लेटर ने डॉक्टरों को इस कदर परेशान किया है कि करीब 10 हजार डॉक्टरों को कोर्ट की शरण लेनी पड़ी है।

दरअसल, 1 पिछले दिनों जारी नेशनल हेल्थ मिशन का एक लेटर मध्य प्रदेश के डॉक्टर नर्स और हेल्थ वर्करों को परेशान करके रखा है। इस लेटर में यह कहा गया है कि कोरोना काल के समय ज्वाइन कराए गए डॉक्टर और हेल्थ वर्करों के लिए अब फंड की व्यवस्था नहीं है। यानी कि इन डॉक्टर और हेल्थ वर्करों की अब सरकार को जरूरत नहीं है, लिहाजा प्रदेश के 20 हजार हेल्थ वर्करों के सामने करो या मरो की स्थिति आ गई हैं।

प्रदेश के करीब 10 हजार डॉक्टरों ने नेशनल हेल्थ मिशन के लेटर और सरकार के खिलाफ हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। जिस पर हाईकोर्ट जबलपुर, खंडपीठ ग्वालियर और इंदौर ने भी इस मामले पर संज्ञान लेते हुए इसे सरकार का संवेदनशील कदम बताया है। कोर्ट ने कहा है कि पहले कोविड काल में डॉक्टरों की सेवाएं लेना और फिर अचानक से उन्हें सेवा से बर्खास्त कर देना कहीं से न्याय उचित नहीं है।

वहीं कोरोना कॉल के दौरान अपनी सेवा देने वाले डॉक्टरों का कहना है कि, सरकार का ये कदम बेहद ही निराशाजनक है, उनका कहना है कि सरकार एक तरफ तो भर्तियां कर रही है दूसरी तरफ यह कह रही है कि उसके पास फंड नहीं है लिहाजा सरकार का यह दोहरा रवैया कहीं ना कहीं बेहद तकलीफ देने वाला है।

गाइडलाइन में पहले से तय थी सेवा शर्तें

वहीं इस मामले में जब हमारी टीम ने रीजनल हेल्थ डायरेक्टर संजय मिश्रा से बात की तो उनका कहना है कि सरकार की गाइडलाइन में पहले से सेवा शर्तें तय थी। मसलन सरकार ने कोविड-19 के दौरान जिन डॉक्टरों को ज्वाइन कराया था, उनकी सेवा शर्तों के नियम भी तय थे। बॉन्ड खत्म होने के बाद इस तरह से परमानेंट नौकरी की मांग करना या कोर्ट में जाना कहीं ना कहीं वह अपनी ही कलम से किए गए समझौते का उल्लंघन कर रहे हैं। स्वास्थ्य विभाग का मानना है कि डाक्टरों को हटाने के पीछे फंडिंग कोई बहुत बड़ी वजह नहीं है। स्वास्थ्य विभाग का कहना है कि क्योंकि कोरोना अब कंट्रोल में आ चुका है, लिहाजा इतने लोगों की जरूरत नहीं है। संजय मिश्रा कहते हैं कि वर्तमान में मौजूद स्टाफ ही काफी है।

जबकि स्वास्थ्य कर्मियों की भारी कमी

मध्यप्रदेश में वर्तमान में 10 हजार की आबादी पर कुल 21 स्वास्थ्यकर्मी हैं। आबादी पर कुल स्वास्थ्यकर्मियों के मामले में मप्र देश में नीचे से छठवें पायदान पर है। हर साल करीब 800 डॉक्टर दूसरे राज्यों में जा रहे हैं। इस साल दो महीने के भीतर ही 110 डॉक्टर एनओसी ले चुके हैं।बड़ी विडंबना यह है कि प्रदेश से जाने वाले डॉक्टरों में एमबीबीएस, एमडी, एमएस के साथ सुपर स्पेशियलिटी डॉक्टर्स भी शामिल हैं।

सरकार का दोहरा रवैया

सरकारी अस्पतालों में आए दिन घटने वाली घटना बताती है कि हमारा स्वास्थय महकमा कितना पर्याप्त और मुस्तैद है। सवाल उठता है कि जिस तरह से नेशनल हेल्थ मिशन ने लेटर जारी कर फंड का रोना रोया है, क्या यह मान लिया जाए कि वाकई में फंड नहीं है या फिर अब सरकार ही मान चुकी है कि अब देश, प्रदेश से कोरोना खत्म हो चुका है और यदि खत्म हो चुका है तो फिर सरकार इस बात का ऐलान क्यों नहीं करती। नेशनल हेल्थ मिशन का यह लेटर कहीं ना कहीं सरकार के दोहरा रवैया को दर्शाता है।

एक तरफ पत्र में कहा जा रहा है कि कोरोना काल में ज्वाइन डॉक्टरों के लिए फंड की व्यवस्था नहीं है। वहीं दूसरी तरफ सरकार डॉक्टर, हेल्थ वर्करों के खाली पदों को भरने के लिए नियुक्ति निकालती है। सरकार डॉक्टरों को गांव में तैनात करने के लिए नियम और शर्तें लगाती है। वहीं कुछ जगह पर सरकारी डॉक्टर गांव में जाने को तैयार नहीं है। सरकार की शर्तों के साथ नौकरी करने को तैयार नहीं है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या जिन लोगों ने इस कठिन काल में मौत का सामना करते हुए लोगों की जान बचाई, उन्हें कंसीडर नहीं करना चाहिए। क्या ऐसे डॉक्टरों को आने वाली भर्तियों में वरीयता नहीं दी जानी चाहिए।

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