रायपुर। कांग्रेस जिस वनवास काल से गुजर रही है क्या वो परिक्रमा के रास्ते समाप्त होगी ? ये सवाल वैसे तो सियासी तौर पर सबके मन में है ही, लेकिन उस राजा के जहन में भी जिन्होंने अपनी यात्रा आध्यात्मिक तौर पर शुरू की है. भले ही यात्रा पूरी तरह से आध्यात्मिक हो, लेकिन असर राजनीतिक तौर पर ही देखा जा रहा है, देखा भी जाएगा और आगे दिखेगा भी.

खैर यात्रा के बीच में अब जरा इन तस्वीरों पर आइए. शब्द गढ़ने की जरूरत नहीं तस्वीर ही सबकुछ बयां कर रही है. अपने-अपने प्रदेश के दो राजा हाथ-हाथ से पकड़े कदम से कदम मिलाकर साथ-साथ चल रहे हैं. लेकिन इसी तस्वीर में अपने दाहिने ओर भी देखिए क्योंकि छत्तीसगढ़ में इन दिनों सत्ता वापसी की कमान इन्हीं के हाथ में. लिहाजा वे भी हाथ बड़े मजबूती के साथ पकड़कर साथ चल रहे हैं.

दरअसल इन तस्वीरों के अपने बड़े सियासी मायने है. इसका आशय भविष्य के गर्भ में है. फिलहाल जो झलकियाँ दिख रही है उसे देखते रहिए. क्योंकि छत्तीसगढ़ के रास्ते कभी अविभाजित मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनती रही है. जब से दोनों राज्य अलग हुए मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों ही जगह से कांग्रेस भी सत्ता बाहर हो गई. बीते तीन चुनावों से कांग्रेस बाहर ही चल रही है. दोनों ही राज्यों में 14 साल का वनवास पूरा हो चुका है.लेकिन जंगल के रास्ते अभी भी सफर जारी है. सफर कहना ठीक नहीं होगा परिक्रमा ही ज्यादा उचित है. क्योंकि है तो परिक्रमा ही. वैसे माँ नर्मदे की इस परिक्रमा को बतौर एक राजा प्रजाजन की परिक्रमा की तौर भी देखा जा सकता है. लेकिन इस परिक्रमा यात्रा में भूपेश बघेल जाहिर तौर पर अपनी पदयात्रा का भी मनन कर रहे होंगे. हाल ही में सबसे अलग-थलग सा रहने-दिखने वाले राजनीति के महंत भी हसदो के तीरे-तीर चले थे. उन्होंने यात्रा की थी परिक्रमा नहीं.

दरअसल धर्म से बड़ा आध्यात्म है.  और आध्यात्म के रास्ते जब सियासत परिक्रमा करने लगे तो फिर सियासतदारों को प्रजा के तीरे-तीर ही चलना चाहिए. ऐसे में छत्तीसगढ़ कांग्रेस के मुखिया के लिए जरूरी है कि वो राजा संग प्रजा के हाथ बड़े जोर से पकड़े रहे.