Column By- Ashish Tiwari , Resident Editor

भ्रष्ट विधायक

ताजा-ताजा भ्रष्ट हुआ व्यक्ति अपने किए भ्रष्टाचार में जरा भी व्यावहारिकता नहीं दिखाता. भ्रष्ट आचरण में डूबकी लगाते-लगाते कब अपनी सीमाएं लांघ जाता है, इसका ख्याल भी नहीं रह जाता. 15 सालों बाद सत्ता मिली, तो यह भ्रष्टाचार करने का नैतिक अधिकार साथ लेकर आई, सो इस विधायक को कोई गुरेज ना हुआ. गरीब मां-बाप की आंखों की चमक पर पर्दा डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी. गरीब मां-बाप ने सोचा था कि स्वामी आत्मानंद स्कूल में पढ़ लिखकर बच्चा कुछ बन जाएगा, मगर व्यावहारिकता भूल चुके माननीय विधायक गरीब मां-बाप की आंखों की इस चमक को कहां ढूंढ पाते. मसला कुछ यूं है कि स्वामी आत्मानंद स्कूल में प्रवेश दिलाने गरीब परिवार ने एक विधायक से अनुरोध किया. विधायक ने बकायदा स्कूल में फोन मिलाया और प्रवेश देने की बात कहीं. स्कूल में प्रवेश तो मिला नहीं, मगर विधायक के एजेंट जरूर सक्रिय हो गए. एजेंट ने परिवार से संपर्क साधा और 25 हजार रुपए ये कहते हुए मांगे कि विधायक की सिफारिशी चिट्ठी दिला देंगे. ये सिफारिशी चिट्ठी स्कूल में प्रवेश दिला देगी. सुनाई पड़ा है कि विधायक ने अपने इलाके के स्कूल में ये ताकीद किया हुआ है कि उनके फोन करने पर तब तक प्रवेश ना दिया जाए, जब तक कि कोई सिफारिशी चिट्ठी लेकर ना पहुंचे. स्वामी आत्मानंद स्कूल में प्रवेश दिलाने विधायक के एजेंट सक्रिय हैं. बताते हैं कि कईयों से 25-25 हजार रुपए लेकर स्कूल में प्रवेश दिलाया गया है. स्वामी आत्मानंद अंग्रेजी स्कूल सरकार की महत्वाकांक्षी योजना है, जिस पर विधायक पलीता लगाने कोई कसर नहीं छोड़ रहे. अच्छा होगा, समय रहते लगाम लगा दिया जाए. 

एक अधिकारी, कई जिम्मेदारी

कुछ के हिस्से मलाई है, तो कुछ लाइन में लगकर इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि उनकी बारी कब आएगी. बहरहाल मामला कुछ ऐसा है कि प्रतिनियुक्ति पर आए अखिल भारतीय सेवा स्तर के एक अधिकारी एक साथ कई जिम्मेदारी संभाल रहे हैं. कहते हैं कि उनके सात आफिस हैं. अतिरिक्त प्रभार का बोझ इतना है कि सातों दफ्तरों में उन्हें आमद देनी होती है. ये एक बात, मगर इन जिम्मेदारियों के परे दूसरी बात ये है कि मूल दायित्वों के साथ-साथ निगम, बोर्ड की जो अतिरिक्त जिम्मेदारियां मिली हैं, वहां का तामझाम इनके साथ है. मसलन जितनी जिम्मेदारियां उतनी गाड़ियां और दूसरे साज़-ओ-सामान. गाड़ियों का काफिला ही इतना हो गया है, अच्छे-अच्छे नौकरशाहों की भी भृकुटि तन जाती होगी. अभी हाल ही में जब एक सीनियर आईएएस की जिम्मेदारी बदली गई थी, तब उन्होंने नई जिम्मेदारी वाली जगह से स्वाभाविक तौर पर आने वाली गाड़ी लेने के लिए परहेज किया था. कुछ मातहतों के जरिए खबर भिजवाई गई, तब ले देकर गाड़ी आई, मगर वह भी खटारी निकली. पुरानी गाड़ी भेज दी गई थी. सीनियर आईएएस व्यवहार कुशल थे, कोई दूसरा होता, तो बवाल कटना तय था. बहरहाल एक अधिकारी अतिरिक्त पर अतिरिक्त प्रभार हासिल कर रहा है, वहीं कई अधिकारी ऐसे हैं, जो मन मसोस कर रह जाते हैं कि उन पर नजरें इनायत कब होंगी. प्रतिभा में कोई कमी तो है नहीं. जो नहीं है, वह है मिजाज में नरमी और सत्ता के केंद्र के इर्द-गिर्द बैठे लोगों से रिश्तेदारी. 

सरकारी खर्च में सब काम

गाड़ियों का जिक्र फूट पड़ा है, तो चर्चा इस बात की भी जरूरी है. महकमे में अधिकारियों के काफिले पर नजर नुमाया किया जाए, तो मालूम चलेगा कि वाकई कई अधिकारी ऐसे हैं, जिनके बंगले में जितनी जगह नहीं, उससे ज्यादा गाड़ियां खड़ी दिखेंगी. बड़ा दिलचस्प मामला है कि एक अधिकारी जितने अतिरिक्त प्रभार पर काबिज है, उसके हिस्से उतनी गाड़ियां तय है. अभी बीते साल की बात है प्रतिनियुक्ति पर दूसरे राज्य गए एक अधिकारी के बारे में तो यह कहा जाता था कि अपने प्रभार वाली जगहों से किराए की गाड़ी मंगाते थे. लाॅग बुक पर हिसाब-किताब कर बड़े कारनामे कर लिए जाते थे. किसी की नजर भी नहीं पड़ती थी. खैर अब इतनी गाड़ियां होंगी, तो घर की सब्जी, दूध, बच्चों को स्कूल लाना ले जाना, मैडम का ब्यूटी पार्लर, ये सब सरकारी गाड़ियों से ही होगा. जब पोर्च में सरकारी गाड़ियों का काफिला खड़ा हो, तो बेवजह अपनी जेब से पेट्रोल कोई क्यों ही फूकेगा. जब सरकारी व्यवस्था ही ऐसी है, तो भला किसी को क्या दिक्कत होनी चाहिए. 

आईजी नपेंगे !

अब सुगबुगाहट कुछ ऐसी ही है. एक रेंज के आईजी के टारगेट पर आने की खबर है. आईजी को जिन उम्मीदों के साथ लाया गया था, वह पूरी नहीं हो पा रही. उम्मीदें पूरी नहीं होने पर नतीजे बदलाव के साथ सामने आते हैं, सो चर्चा जोरों पर चल रही है. दूसरी ओर रेंज ऐसा है कि कईयों की बांछे खिली हुई है. सुदूर रेंज से लेकर सत्ता के केंद्र के बेहद करीब कई चेहरे हैं, जिनकी लामबंदी की भी खबर है. कोशिश पहले भी की गई थी, मगर गणित फिट बैठा नहीं. अबकी बार जब से संकेत दिए गए हैं, तब से कोशिशें परवान चढ़नी दोबारा शुरू हो गई है. वैसे आईजी को भी अब यह महसूस होने लगा है कि सब कुछ ठीक ठाक नहीं है.

तबादलों का मौसम

मौसम ने करवट बदल ली है. सुनने में आ रहा है कि ब्यूरोक्रेसी में तबादलों का मौसम आने वाला है. मुख्यमंत्री भेंट मुलाकात के कार्यक्रम से थोड़ा फ्री होंगे, तब प्रक्रिया बढ़ा दी जाएगी. बताते हैं कि इस दफे बड़े पैमाने पर सूची आ सकती है. कई जिलों में कलेक्टरों के बदलाव की रुकी प्रक्रिया आगे बढ़ सकती है. सुनाई पड़ रहा है कि बस्तर में तैनात रजत बंसल रायपुर लाए जा सकते हैं. उनकी जगह प्रियंका शुक्ला के नाम की चर्चा अर्से से चल रही है. बिलासपुर कलेक्टर सारांश मित्तर, दंतेवाड़ा कलेक्टर दीपक सोनी, कोरबा कलेक्टर रानू साहू, सरगुजा कलेक्टर संजीव झा की अदला बदली हो सकती है. परफारमेंस के हिसाब से कुछ को इधर से उधर किया जा सकता है, तो कहीं-कहीं नए चेहरे बिठाए जा सकते हैं. रायगढ़ कलेक्टर भीम सिंह को लेकर खबर है कि उन्हें ठीक ठाक पोर्टफोलियो देकर रायपुर में रखा जा सकता है. भेंट मुलाकात के जरिए मुख्यमंत्री प्रशासनिक कामकाज की समीक्षा कर रहे हैं, जाहिर है कई जिलों के कलेक्टर-एसपी को लेकर तरह-तरह के फीड बैक उन्हें मिले होंगे. तबादलों में उन फीडबैक्स का अक्स नजर आ सकता है. इधर विधानसभा के मानसून सत्र की अधिसूचना जारी हो चुकी है, सो संभावना है कि इसके पहले तबादले की बड़ी सूची जारी हो जाए. 

मायूस ओएसडी

नए जिलों की घोषणा के साथ सरकार ने जोर-शोर से ओएसडी अपाइंट किया था. नए जिलों के गठन की प्रारंभिक अधिसूचना भी जारी हो गई, मगर अंतिम अधिसूचना पर ग्रह-नक्षत्र हावी हो गए. अब कहने को तो नए जिलों में ओएसडी तैनात हैं, मगर कलेक्टरी नहीं मिल पाने से मायूस हैं. कलेक्टरी तभी मिलेगी, जब अंतिम अधिसूचना का प्रकाशन होगा. मायूस ओएसडी बीते दिनों मंत्रालय में घूमते मिले. चार नए जिलों में से तीन जिलों के ओएसडी ने चीफ सेक्रेटरी समेत कई सीनियर आईएएस अधिकारियों से मुलाकात कर प्रक्रिया तेज करने का अनुरोध किया. मगर नतीजा मिला शून्य. बताते हैं कि जिलों के पूरी तरह से फंक्शनिंग होने का मामला अधिकारियों ने मुख्यमंत्री पर डाल दिया है. उधर एक बात कहीं गई है कि अंतिम अधिसूचना के प्रकाशन से जुड़ी फाइल विधि विभाग को परीक्षण के लिए भेजा गया है. बहरहाल मायूस हुए ओएसडी अब सरकार की ओर टकटकी निगाह डाले बैठे हैं. कब कलेक्टरी का जलवा हासिल होगा.

फोन टैप

महाराष्ट्र में उठे सियासी बवंडर का असर इधर छत्तीसगढ़ में बयानों के जरिए तब देखने को मिला, जब मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा कि केंद्र सरकार राज्य के नेताओं के फोन टेप कर रही है. राज्य सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की जा रही है. अब बड़ी मिजोरिटी के साथ सत्ता में आई कांग्रेस सरकार को उखाड़ने की हिमाकत कौन करेगा? इस सवाल के बीच जब नजरें दिल्ली की ओर दौड़ाई जाती हैं, तो मालूम चल जाता है कि ऐसी हिमाकत कौन कर सकता है. बहरहाल दिगर राज्यों में जोड़तोड़ की सरकार वाले हालात छत्तीसगढ़ में है नहीं, सो यहां तोड़फोड़ कर पाना नामुमकिन सा लगता है. तो फिर सवाल उठता है कि मुख्यमंत्री के बयान के मायने क्या हैं? दरअसल भूपेश बघेल सियासत के वो पंडित हैं, जो दूर की कौड़ी खेलना जानते हैं. उनके हर बयान की अपनी एक पृष्ठभूमि होती है. जाहिर है इस बयान के पीछे कोई बड़ा आधार होगा ही. इधर तोड़फोड़ किए जाने के तमाम तरह के उभरे सवालों को छोड़ दिया जाए, तो फोन टेप करने का मामला एक गंभीर विषय जरूर है. आजकल सरकारों का यह एक बड़ा हथियार बन गया है. अधिकारी हो या फिर नेता-मंत्री सामान्य काल पर बात करने से हर कोई बच रहा है. अब किसी को चाय पीने-पिलाने का भी न्यौता देना हो तो लोग फेसटाइम, व्हाट्स एप, सिग्नल का इस्तेमाल करते हैं. डर सभी जगह है. यहां भी-वहां भी…..