रायपुर. तीस वर्ष पहले जब मरीज़ को देखने 15-20 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था और 2021 के कोविड-काल में मृत्यु और संक्रमण दर को कम रखने तक, डॉ.गौतम ने दंतेवाडा जिले में उन्नति की ओर कई बदलाव देखे है.
डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी करने के बाद कुआं कुंडा विकासखंड के गांव पालनार की पीएचसी में पहली तैनाती के बाद अब तक डॉ.गौतम कुमार दंतेवाडा में ही अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं. कोविड-19 के संक्रमण दौर में कुशल प्रबंधन के कारण और स्थानीय लोगों की जागरूकता से उन्होंने संक्रमण के खतरे को रोका.
वह बताते हैं कि
आगे डॉ.गौतम कुमार बताते हैं कि जब पहली पोस्टिंग हुई तो मरीज देखने जाने के लिए भी साधन उपलब्ध नहीं था तो ऐसे में 10 से 15 किलोमीटर पैदल ही चल देते थे. उन्होंने दंतेवाड़ा, जो तब अति पिछड़े क्षेत्रों में से एक था, सुदूर अंचल में सैकड़ों स्वास्थ्य शिविर लगाए और हजारों लोगों के लिए जीवन बचाने वाले मसीहा भी बने. मुझे बचपन से ही जनसेवा का शौक था. लोगों की सेवा करना ही उन्होंने अपने जीवन का उद्देश्य बनाया.
संस्थागत प्रसव पर दिया जोर
डॉ.गौतम कहते हैं, जब मैं यहां पहुंचा तो संस्थागत प्रसव को लेकर क्षेत्र में जागरूकता का बहुत अभाव था. अधिकतर घरों पर ही प्रसव होते थे. धीरे-धीरे लोगों को शिविर आयोजन के माध्यम से बताया जानकारी दी गयी कि सरकार द्वारा संस्थागत प्रसव की व्यवस्था है. संस्थागत प्रसव कराने से जच्चा और बच्चा की देखभाल सुनिश्चित होती है. साथ ही मातृ और शिशु मृत्यु की सम्भावना भी नहीं रहती है. संस्थागत प्रसव से बच्चे और मां की नियमित जांच और टीकाकरण भी किया जाता है जिससे जच्चा और बच्चा सुरक्षित होता है.
स्नेक बाइट पर बदला लोगों का नजरिया
डॉ.गौतम के मुताबिक दंतेवाड़ा में सबसे अधिक स्नेक बाइट (सर्प दंश) और वाइल्ड बाइट (जंगली कीड़ों का काटना) के भी केस बहुत आते हैं. इसके लिए भी विशेष जागरूकता के लिए भी कार्य किया गया. लोगों को यह सलाह दी गयी कि सर्पदंश के काटने का इलाज झाड़-फूंक नहीं है बल्कि समय पर डॉक्टरी सलाह एवं उपचार है. कई बार शिविर लगाकर लोगों को जागरूकता के साथ साथ समय पर इलाज मुहैया कराया गया.
जिला की भौगोलिक स्थिति है कठिन
दंतेवाड़ा जिले की भौगोलिक स्थिति ऐसी है जहां बरसात में कई स्थान मुख्यालय से कट जाते हैं. इस बारे में डॉ. गौतम ने बताया कि कई बार तो ऐसा हुआ वर्षा होने पर नाला चढ़ गया और आश्रय स्थल भी बड़ी मुश्किल से मिला. वहीं जंगल में रुकना पड़ता था. कई गांव इतनी दूरी पर बसे हैं जहां जाना पहुंचना आज भी काफी कठिन है और पहले तो यातायात के इतने साधन भी नहीं थे. उन स्थानों पर जाने के लिए 10-15 किलोमीटर पैदल चलना होता था. टीम के साथ वैक्सीन लेकर नदी नालों को पार किया और गांव में शिविर लगाकर बच्चों का टीकाकरण करवाया जाता था. लेकिन अब स्थितियां बदल चुकी है और स्वास्थ्य सेवाएं दूर दराज़ के गाँव में भी उपलब्ध हैं.
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