जन्मसिद्ध अधिकार: माँ का दूध हर बच्चे का जन्मसिद्ध अधिकार है. भारत में जन्म के एक घंटे के भीतर केवल 42% माताएँ ही शिशुओं को स्तनपान कराती हैं, जबकि, अस्पतालों में प्रसव के प्रतिशत 89% है (NFHS-5 के अनुसार). दूसरी ओर पहले छह महीनों में जो माताएं अपने बच्चों को विशेष रूप से स्तनपान कराती हैं उनका प्रतिशत 64% है.

प्रत्यक्षतः शिशुओं को स्तनपान करने का कानूनी अधिकार प्राप्त है. इसी तारतम्य में कुछ वर्ष पहले, केरल राज्य में जब एक पिता ने अपनी पत्नी द्वारा बच्चे को जन्म के बाद स्तनपान कराने पर आपत्ति दर्ज की, उन पर किशोर न्याय अधिनियम की धारा 75 के तहत बच्चे को पीड़ित करने का आरोप लगाया गया.

स्तनपान के तीन प्रचलित पदत्तियाँ: डब्ल्यूएचओ शिशुओं के स्तनपान की तीन तरह के पदत्तियाँ के बारे में बताता है. इसमे पहला है – जन्म के एक घंटे के भीतर शिशुओं को स्तनपान; दूसरा – जन्म के पहले छह महीनों में विशेष रूप से सिर्फ स्तनपान या केवल एक चम्मच पानी या शहद ; तीसरा – छह से दो वर्षों तक स्तनपान जारी रखते हुए, अन्य भोज्य पदार्थों का सेवन.

जिन माताओम के बच्चे सिजेरियन सेक्शन द्वारा जन्मे होते हैं, वो भी जन्म के एक घंटे के भीतर बच्चों को स्तनपान करा सकती हैं. आम प्रचलन में माताएं बच्चों की मजबूती के लिए जन्म के चौथे महीने से बच्चों को दूग्ध पदार्थों का सेवन कराती हैं, ये सही प्रक्रिया नही है, और इसके अलग दोष हैं.

शिशुओं को लाभ: बच्चों को हर तरह के संक्रमण से बचाने में माँ का पहला दूध (कोलोस्ट्रम) जो कि एंटीबॉडी से भरपूर होता है, वही सर्वश्रेष्ठ है. एक तरह से, बच्चों को संक्रमण और बीमारियों से बचाने के लिये ये बच्चे का पहला टीका भी है. माँ के दूध में पोषक तत्वों का आदर्श संतुलन होता है जिसे शिशु आसानी से पचा सकते हैं. अगर जन्म के एक घंटे में बच्चों को स्तनपान अनिवार्य रूप से कराया जाए तो, नवजात शिशु मृत्यु दर में 22% को रोका जा सकता है (घाना अध्ययन, 2006). साथ ही अगर उच्चतम रूप से 5 वर्ष तक अगर बच्चों को स्तनपान कराया जाता है तो इस अवधि के 13% बच्चों की मृत्यु को रोका जा सकता है (लैंसेट, 2003).

नियमित स्तनपान बच्चों में मृत्यु, बीमारियों और कुपोषण को कम करता है. साथ ही,स्तनपान करने वाले शिशुओं में डायरिया और निमोनिया होने की संभावना कम होती है, जो की बालावस्था में बच्चे की मृत्यु का प्रमुख कारण है.

जिन शिशुओं को नियमित स्तनपान मिलता है, उन बच्चों में, वयस्क जीवन में मधुमेह, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, ब्रेन स्ट्रोक, अस्थमा और कैंसर होने की संभावना कम होती है. साथ ही इनमें त्वचा और कान के संक्रमण और आंतों की बीमारियों का खतरा भी बेहद कम होता है. इसके साथ ही शिशुओं में भावनात्मक, और मस्तिष्क के विकास के साथ तकनीकी क्रियाओं के लिए भी माँ का दूध महत्वपूर्ण है. ध्यान देने योग्य तथ्य है कि स्तनपान करने वाले शिशुओं का आईक्यू न केवल पॉइंट 5-8 अधिक होता है बल्कि वे पढ़ाई में भी बेहतर प्रदर्शन करते हैं. न केवल ये बल्कि, स्तनपान मां के साथ बच्चे को गहरे भावनात्मक रूप से से भी जोड़ता है.

स्तनपान से माताओं को लाभ: स्तनपान न केवल शिशुओं को बल्कि माताओ के लिए भी लाभकारी होता है. स्तनपान कराने वाली माताएं अपना वजन कम करने में सक्षम होती हैं और अपने शरीर के पूर्व आकार को फिर से हासिल कर सकती हैं. स्तनपान प्रसव के बाद के रक्तस्राव को कम करता है और माताओं को तेजी से स्वस्थ होने में मदद करता है. नियमित स्तनपान से दुनिया में सालाना 20,000 के करीब मातृ मृत्यु को रोका जा सकता है (लांसेट, 2016).

माताओं द्वारा नियमित स्तनपान कराने से उन्हें अंडाशय और गर्भाशय के कैंसर का खतरा कम होता है. साथ ही इसकी वजह से माताएं उच्च रक्तचाप, हृदय रोग और टाइप -2 मधुमेह के जोखिम को कम कर सकती हैं. ना केवल ये बल्कि स्तनपान एक गर्भनिरोधक की तरह काम करता है जिसकी वजह से अगली गर्भावस्था में समय लगता है. इन सबके अलावा ये माताओं में न केवल तनाव और चिंता को कम करता है बल्कि बच्चो को माताओँ से गहरे भावनात्मक रूप से जोड़ता है.

अकेली महिला की जिम्मेदारी नहीं: स्तनपान कराना अकेली महिला का काम नहीं है. यह एक संयुक्त जिम्मेदारी है. स्तनपान में माँ को न केवल अपने पति बल्कि परिवार के अन्य सदस्यों के सहयोग की आवश्यकता होती है. स्तनपान कराने को लेकर नर्सों के नियमित परामर्श और समर्थन की भी आवश्यकता है; जैसे उचित समय मे छुट्टी, नर्सिंग ब्रेक, क्रेच की सुविधा के लिए नियोक्ता की जिम्मेदारी; साथ ही अस्पताल भी स्तनपान में मदद करे. माँ को सार्वजनिक स्थानों पर स्तनपान कराने के लिए सुरक्षित स्थान की आवश्यकता होती है. भारत के अधिकांश प्रमुख रेलवे स्टेशनों में वर्तमान में स्तनपान के लिए विशेष जगह बनाये हैं.

सुरक्षित मातृत्व : ILO कन्वेंशन 183, मातृत्व सुरक्षा पर यह निर्धारित करता है कि गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं को कम से कम 14 सप्ताह का सवैतनिक अवकाश दिया जाना चाहिए साथ ही माताओं को बच्चों को स्तनपान कराने के लिए दैनिक नर्सिंग ब्रेक की अनुमति दी जानी चाहिए. यह काम के घंटों को कम करने की भी सिफारिश करता है.

शिशु-अनुकूल अस्पतालों की पहल: 1991 में, यूनिसेफ और डब्ल्यूएचओ ने स्तनपान सहित 10 प्रथाओं को बढ़ावा देने के लिए “बेबी फ्रेंडली अस्पताल के पहल” की शुरूवात की थी. केरल 2002 में “बेबी फ्रेंडली हॉस्पिटल स्टेट” घोषित होने वाला दुनिया का पहला राज्य बन गया. हम अपने अस्पतालों, घरों और सार्वजनिक स्थानों को मां के अनुकूल और बच्चों के अनुकूल बनाने के लिए इस कार्यक्रम को पुनर्जीवित कर सकते हैं.