रायपुर. कुशग्रहणी अमावस्या भाद्रपद मास की अमावस्या को कहा जाता है. हिन्दू धर्म ग्रंथों में इसे कुशोत्पाटिनी अमावस्या भी कहा गया है. इस दिन वर्ष भर किए जाने वाले धार्मिक कार्यों और श्राद्ध आदि कार्यों के लिए कुश, एकत्रित किया जाता है. हिन्दुओं के अनेक धार्मिक क्रिया-कलापों में कुश का उपयोग आवश्यक रूप से होता है. पुरोहित हमेशा कुशा से गंगा जल को सभी लोगों के ऊपर छिड़कते हैं. पूरे साल पुजा के लिए इस दिन ही कुश एकत्रित किया जाता हैं, इस दिन पूर्वाह्न काल मे कुशों के समीप पूर्व या उत्तर की ओर मुह करके बैठ जाय. फिर ऊँ हुं फट् कहकर दाहिने हाथ से कुशों को उखाड़ ले.

पूजाकाले सर्वदैव कुशहस्तो भवेच्छुचि:.
कुशेन रहिता पूजा विफला कथिता मया

प्रत्येक गृहस्थ को इस दिन कुश का संचय करना चाहिए. शास्त्रों में दस प्रकार के कुशों का वर्णन मिलता है. इनमें से जो भी कुश इस तिथि को मिल जाए, वही ग्रहण कर लेना चाहिए. किन्तु जिस कुश में पत्ती हो, आगे का भाग कटा न हो और हरा हो, वह देव तथा पितर दोनों कार्यों के लिए उपयुक्त होता है.

कुश निकालने के लिए इस भाद्रपद अमावस्या के दिन सूर्योदय के समय उपयुक्त स्थान पर जाकर पूर्व या उत्तराभिमुख बैठकर निम्न मंत्र पढ़ें और हुँ फट् कहकह दाहिने हाथ से एक बार में कुश उखाड़ना चाहिए. इस दिन तीर्थ स्थान पर स्नान कर यथाशक्ति दान देने से देवता व पितर दोनों संतुष्ट होते हैं तथा सभी मनोकामनाएँ पूरी करते हैं.

फल

कुशाग्रहणी अमावस्या के दिन तीर्थ, स्नान, जप, तप और व्रत के पुण्य से ऋण और पापों से छुटकारा मिलता है. इसलिए यह संयम, साधना और तप के लिए श्रेष्ठ दिन माना जाता है. पुराणों में अमावस्या को कुछ विशेष व्रतों के विधान है. भगवान विष्णु की आराधना की जाती है. यह व्रत एक वर्ष तक किया जाता है, जिससे तन, मन और धन के कष्टों से मुक्ति मिलती है.

कुशा की उत्पत्ति के विषय में कहा जाता है कि प्राचीन काल में जब भगवान विष्णु ने वराह रूप धारण कर समुद्रतल में छिपे हिरण्याक्ष का वध कर दिया और पृथ्वी को उससे मुक्त कराकर बाहर निकले तो उन्होंने अपने बालों को फटकारा. उस समय कुछ रोम पृथ्वी पर गिरे यही रोम कुश के रूप में प्रकट हुए है. सनातन धर्म इस दिन को अघोरा चतुर्दशी के रूप में मनाया जाता है. अघोरा चतुर्दशी के दिन तर्पण करने की मान्यता है कि इस दिन शिव के गणों भूत-प्रेत आदि सभी को स्वतंत्रता प्राप्त होती है.