रंजन दास, बीजापुर। यूं तो बस्तर अपने आप में बेमिसाल है, वो यहां की आदिम संस्कृति हो या नैसर्गिक खूबसूरती. लेकिन बदलते समय के साथ बस्तर की आदिम संस्कृति धीरे-धीरे ओझल हो रही है, हम बात कर रहे हैं “गढ़” की, जिसका अर्थ दीवारों पर चित्रकारी से है.

बस्तर की चारों दिशाओं में बसने वाली विभिन्न आदिवासी जनजातियों में कभी “गढ़ ” का खूब चलन था. विभिन्न बोलियों के हिसाब से अलग-अलग स्थानों पर ‘गढ़’ को अन्य नामों से भी जाना जाता है. बीजापुर जिले के सीमावर्ती इलाकों में बसे गांव में ज्यादातर दोरली आदिवासी बहुल हैं. इन गावों में प्रायः सभी मिट्टी के बने घरों की दीवारों पर ‘गढ़’ सहसा देखने को मिलती है. बीजापुर के उसूर, आवापल्ली से लेकर बासागुड़ा और सुकमा से सटे सरहदी इलाकों में यह कला कई गांवों में आज भी जीवित है. मिट्टी से बने घरों की दीवारों पर कलात्मक, सुंदर चित्रकारी के जरिये खूबसूरती प्रदान करने की कोशिश की जाती है.

आदिवासी संस्कृति के जानकार हेमन्त कश्यप बताते हैं कि जमीन में जो चित्र बनाए जाते हैं उसे भूमि चित्र या भित्ति कहते हैं. इसे चौक पूरना भी कहते हैं. इसके लिए रंगोली, चावल आटा आदि का उपयोग किया जाता है. लेकिन दीवारों पर जो चित्रकारी होती है, उसे ‘गढ़’ कहा जाता है. हालांकि, भौगोलिक और बोली भिन्नता के आधार में अलग-अलग स्थानों पर इसके अलग नाम भी है. इस कला में प्राकृतिक रंगों का ही इस्तेमाल किया जाता है, जैसे गेरु, छुई मिट्टी, कोयला, हर्रा, भेंगरा आदि से जो चित्र बनाए जाते हैं. बस्तर के अधिकतर हिस्सों में इसे गढ़ ही कहते हैं. “गढ़” शब्द गढ़ना से लिया गया है.

बीजापुर निवासी कवि, साहित्यकार बीरा राजबाबू की मानें तो कच्चे मकान में लाल और काली मिट्टी से रंग-रोगन कर सजाया जाता है. दीवाल में जो चित्र उकेरे जाते हैं, यह महिलाएं हाथ से सफेद चावल के आटे से बनाती हैं. भोपालपटनम और आवापल्ली स्थित तेलगु भाषी घरों में आज भी यह घर श्रृंगार होता है. हालांकि, बदलते दौर में गांवों की जगह अब शहर ले रहे है, और मिट्टी के मकानों के बदले ईंट, सीमेंट से बहुमंजिला इमारतें बन रही है, जिनकी दीवारों पर प्राकृतिक नहीं बल्कि कृत्रिम रंग चढ़ते हैं, ऐसे में बस्तर के सुदूर हिस्सों में “गढ़” का चलन किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं.

इसे भी पढ़ें :