ढोल मंजीरे पर थिरकती उंगलियां और उन उंगलियों से लिपटे धागों से बंधी कठपुतलियां… कितना कुछ सिखाती और बताती हैं हमें, कठपुतली पर न जाने कितने ही कवियों और शायरों ने रचनाएं लिखी हैं, पर खुद कठपुतली की रचना कब और कैसे हुई इस पर बात जरा कम होती है. बहुत से लोग ये भी नहीं जानते होंगे कि आज यानी 21 मार्च को विश्व कठपुतली दिवस मनाया जाता है. तो चलिए इस खास दिनपर जानते हैं कठपुतलियों का इतिहास और उस से जुड़ी रोचक बातें.
विश्व कठपुतली दिवस की शुरुआत 2003 में युनेस्को से संबद्ध एक गैर-सरकारी संगठन UNIMA द्वारा की गई थी. 21 मार्च 2003 को पहला विश्व कठपुतली दिवस मनाया गया. मनोरंजन का सशक्त माध्यम रहीं कठपुतलियां जागरूकता का काम भी कर रही हैं. Read More – कम ही लोगों को नसीब होता है इन फलों का स्वाद, मार्केट में नहीं गली-मोहल्लों में बिकते हैं ये Fruit …
राजस्थान में अभी भी शामिल हैं कठपुतलियों के रंग
राजस्थान के रंगों में अभी भी इन कठपुतलियों के रंग मिले हैं. ये राज्य बरसों से इस कला को संजोए हैं. राजस्थान के कई हिस्सों में आज भी कठपुतली का खेल होता है. राजस्थान के गांवों में कोई भी मेला, धार्मिक त्योहार या सामाजिक मेलजोल कठपुतली नाच के बिना अधूरा है. कठपुतली नाच की शुरुआत ढोलक की थाप से होती है. यहां पर कठपुतली नाच न केवल मनोरंजन का स्रोत है, बल्कि इस लोक कला के जरिये नैतिक और सामाजिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार भी होता है तथा सामाजिक मुद्ददों और कुरीतियों को उजागर किया जाता है. यहां की कठपुतलियों का बड़ा सा मुंह बनाया जाता है और उनकी आंखें, होंठ सभी बड़े होते हैं. इन्हें लंबा सा लहंगा पहनाया जाता है.
कठपुतलीयों के प्रकार
धागे वाली कठपुतली
इन कठपुतलियों के संचालन में संचालन करने वाला धागों के सहारे बंधी कठपुतलियों को ऊपर से संचालित करता है और यह कठपुतली कला का एक लोकप्रिय स्वरूप है. इस तरह की कठपुतलियों का जन्म राजस्थान में हुआ था. इस तरह की कठपुतलियों में हाथ-पैर का संचालन बहुत अच्छी तरह से होता है. इसकी प्रस्तुति में दर्शक एक साथ बहुत सी कठपुतलियों की गतिविधियों का आनन्द ले सकता है.
दस्ताने वाली कठपुतली
इन कठपुतलियों का निर्माण दस्तानों के ऊपर होता है. इसमें कठपुतली के सिर को तर्जनी से, मध्यमा और अंगूठे से एक-एक हाथ तथा कलाइयों से कमर की हलचल का संचालन होता है. यह कठपुतलियों का अपेक्षाकृत नया स्वरूप है और धीरे-धीरे लोकप्रिय होता जा रहा है. इनके प्रस्तुतिकरण में मंच सज्जा का भी खूब उपयोग होता है.
छड़ वाली कठपुतली
यह पुतलियां विदेशों में अधिक प्रयुक्त होती हैं. इनका निर्माण तो दस्तानों पर ही होता है, लेकिन इनके संचालन में तीन छड़ों का भी उपयोग होता है. दो छड़ें पुतली के हाथों तथा एक छड़ पुतली के सिर के संचालन में काम आती है. विदेशों में इनको शरीर नुमा लकड़ी के फ्रेम पर बनाया जाता है और गर्दन एवं कमर के हिस्सों को गोल लकड़ी की छड़ों पर एक के ऊपर एक रख कर कठपुतली में हरकत पैदा की जाती है. Read More – 45वां जन्मदिन मना रही हैं Rani Mukherjee : पैदा होते ही एक दूसरे बच्चे से ‘एक्सचेंज’ हो गई थीं रानी, ढूंढने के लिए मां को करनी पड़ी थी मशक्कत …
छाया वाली कठपुतली
छाया कठपुतलियां एक खास तरह की कठपुतलियां होती हैं, जिसमें चमड़े की पुतलियों पर प्रकाश डाल कर एक सफेद कपड़े पर उसकी छाया के जरिए विभिन्न भाव व मुद्राएं प्रस्तुत की जाती हैं. दो-तीन मीटर लम्बे तथा दो मीटर चौड़े सफेद पतले पर्दे पर विभिन्न आकार की चमड़े की पुतलियों की छाया के जरिए छाया पुतलियां दर्शकों के सामने सजीव पात्रों की तरह प्रभाव पैदा कर देती हैं. भारत में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल में तथा इण्डोनेशिया, कम्बोडिया आदि में छाया पुतलियां खासी लोकप्रिय हैं. हालांकि इन छाया पुतलियों के प्रस्तुतीकरण की अपनी कुछ सीमाएं भी हैं.
दस्ताने एवं छड़वाली कठपुतली
इन कठपुतलियों के निर्माण एवं संचालन में छड़ एवं दस्ताने दोनों का इस्तेमाल होता है. संचालनकर्ता हाथों में दस्ताने पर बनी पुतली को पहन कर नीचे खड़ा होकर संचालन करता है. परदे तथा मंच पर प्रस्तुत अन्य सामग्री को आगे-पीछे गति देने के लिए छड़ों का इस्तेमाल किया जाता है. यह शैली ऐसी है कि इसमें कठपुतलियों के जरिए हर प्रकार के भावों का संप्रेषण किया जा सकता है. इसमें धागे वाली कठपुतलियों की तरह कठपुतलियों के आपस में उलझने की आशंका भी नहीं होती. पश्चिम में जनसंचार माध्यम के तौर पर इनका प्रयोग सबसे अधिक होता है.
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