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सतपुड़ा के घने जंगल. नींद में डूबे हुए से ऊंघते अनमने जंगल. झाड़ ऊंचे और नीचे, चुप खड़े हैं आंख मीचे, घास चुप है, कास चुप है, मूक शाल, पलाश चुप है. बन सके तो धंसो इनमें, धंस न पाती हवा जिनमें, सतपुड़ा के घने जंगल, ऊंघते अनमने जंगल….. हिन्दी पाठ्यपुस्तक में इस कविता को हर किसी ने पढ़ा है.
आज हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध कवि, मध्य प्रदेश के गौरव एवं साहित्य अकादमी पुरस्कार और पद्मश्री से सम्मानित कवि पं. भवानी प्रसाद मिश्र की जयंती है. गांधीवादी विचारक पं. मिश्र का जन्म 29 मार्च 191& को गाँव टिगरिया, तहसील सिवनी मालवा, जिला होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) में हुआ था.
भवानी प्रसाद मिश्र को 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ पर ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया. 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का ‘साहित्यकार सम्मान’ दिया गया. 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन के ‘शिखर सम्मान से अलंकृत किया गया. जंगल और जंगली जीवन पर लिखी उनकी कविता ‘सतपुड़ा के घने जंगल’ को काफी प्रसिद्धि मिली. यह कविता पाठकों को एक अछूती प्रकृति की सुन्दर दुनिया में लेकर चलती है. यह कविता कई राज्यों के पाठ्यक्रम में भी शामिल हुई.
हिंदी, संस्कृत एवं अंग्रेजी भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ थी. भवानी प्रसाद मिश्र 1946 से 1950 तक महिलाश्रम, वर्धा में शिक्षक रहे. फिर उन्होंने 1952 से 1955 तक हैदराबाद में ‘कल्पना’ मासिक पत्रिका का सम्पादन किया. इसके बाद 1956 से 1958 तक उन्होंने आकाशवाणी में संचालन का कार्य किया. वे मुम्बई में आकाशवाणी के प्रोड्यूसर पद पर नियुक्त हुए. बाद में उन्होंने आकाशवाणी केन्द्र दिल्ली में भी काम किया.
एक बार वे दिल्ली से मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर में एक विवाह समारोह में गए थे. वहीं अचानक बीमार हो गए और 20 फरवरी 1985 को अन्तिम सांस ली.
पं. भवानी प्रसाद मिश्र की रचनाएं
गीत फरोश, बुनी हुई रस्सी, नीली रेखा तक, मानसरोवर, अनाम तुम आते है, त्रिकाल संध्या, चकित, है दु:ख, कालजयी, खुशबू के शिलालेख, शरीर, कविता, फसलें और फूल, परिवर्तन जिए, अन्धेरी कविताएँ, नीली रेखाएं तक…
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