अद्वैत वेदांत के प्रणेता श्रीमद्जगतगुरु आदि शंकराचार्य जी की आज जयंती है. आदि शंकराचार्य भारत के एक महान दार्शनिक और धर्मप्रवर्तक थे. उन्होंने अद्वैत वेदान्त को ठोस आधार प्रदान किया. भगवद्गीता, उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी हुई इनकी टीकाएं बहुत प्रसिद्ध और प्रासंगिक है. उन्होंने सांख्य दर्शन का प्रधानकारणवाद और मीमांसा दर्शन के ज्ञान-कर्मसमुच्चयवाद का खण्डन किया.
आदि शंकराचार्य जी का जन्म 788 ईस्वी में वैशाख महीने में शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि पर हुआ था. आदि शंकराचार्य ने 8 साल की उम्र में सभी वेदों का ज्ञान हासिल कर लिया था. इनका जन्म दक्षिण भारत के नम्बूदरी ब्राह्मण वंश में पिता शिवगुरु और माता आर्यम्बा से कलाडी (केरल) गांव में हुआ था. माना जाता है कि 820 ईस्वी में सिर्फ 32 साल की उम्र में शंकराचार्य जी ने हिमालय क्षेत्र में समाधि ली थी. हालांकि शंकराचार्य जी के जन्म और समाधि लेने के साल को लेकर कई तरह के मतभेद भी हैं.
आदि शंकराचार्य प्राचीन ग्रंथों पर अपनी गहन और व्यावहारिक टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं. ब्रह्म सूत्र की समीक्षा जो उन्होंने लिखी वह ब्रह्मसूत्रभाष्य के रूप में प्रख्यात है और ब्रह्म सूत्र पर सबसे पुरानी टिप्पणी है. उन्होंने उपनिषदों और भगवत गीता पर विचार और टिप्पणियां भी लिखीं. इसके अलावा उन्होंने बहुत से ग्रंथों की रचना की जो अद्वैत वेदांत के आधार स्तम्भ हैं. उनकी कृतियों में अद्वैत वेदांत की तर्कपूर्ण स्थापना हुई है.
देश और संस्कृति को एकता के सूत्र में बांधा
भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक एकता के लिए आदि शंकराचार्य ने विशेष व्यवस्था की थी. उन्होंने उत्तर भारत के हिमालय में स्थित बदरीनाथ धाम में दक्षिण भारत के पुजारी और दक्षिण भारत के मंदिर में उत्तर भारत के पुजारी को रखा. वहीं पूर्वी भारत के मंदिर में पश्चिम के पुजारी और पश्चिम भारत के मंदिर में पूर्वी भारत के पुजारी को रखा था. जिससे भारत चारों दिशाओं में आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप से मजबूत हो और देश एकता के सूत्र में बंध सके.
देश, धर्म और प्रकृति की रक्षा के लिए दशनामी अखाड़ों की स्थापना
आदि शंकराचार्य ने दशनामी संन्यासी अखाड़ों को देश की रक्षा के लिए जिम्मेदारियां दी. इन अखाड़ों के संन्यासियों के नाम के पीछे लगने वाले शब्दों से उनकी पहचान होती है. उनके नाम के पीछे वन, अरण्य, पुरी, भारती, सरस्वती, गिरि, पर्वत, तीर्थ, सागर और आश्रम, ये शब्द लगते हैं. आदि शंकराचार्य जी ने इनके नाम के मुताबिक ही इन्हें अलग-अलग जिम्मेदारियां दी. इनमें वन और अरण्य नाम के संन्यासियों को छोटे-बड़े जंगलों में रहकर धर्म और प्रकृति की रक्षा करनी होती है. इन जगहों से कोई अधर्मी देश में न आ सके, इसका ध्यान भी रखा जाता है. पुरी, तीर्थ और आश्रम नाम के संन्यासियों को तीर्थों और प्राचीन मठों की रक्षा करनी होती है. इसी तरह भारती और सरस्वती नाम के संन्यासियों का काम देश के इतिहास, आध्यात्म, धर्म ग्रंथों की रक्षा और देश में उच्च स्तर की शिक्षा की व्यवस्था करना है. गिरि और पर्वत नाम के संन्यासियों को पहाड़, वहां के निवासी, औषधि और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए नियुक्त किया गया. सागर नाम के संन्यासियों को समुद्र की रक्षा के लिए तैनात किया गया.
4 बार पूरे भारत की यात्रा
माना जाता है कि भगवान शिव की कृपा से ही आदि गुरु शंकराचार्य का जन्म हुआ. जब ये तीन साल के थे तब इनके पिता की मृत्यु हो गई. इसके बाद गुरु के आश्रम में इन्हें 8 साल की उम्र में वेदों का ज्ञान हो गया. फिर ये भारत यात्रा पर निकले और इन्होंने देश के 4 हिस्सों में 4 पीठों की स्थापना की. ये भी कहा जाता है इन्होंने 3-4 बार पूरे भारत की यात्रा की थी.
4 वेदों से जुड़े 4 पीठ की स्थापना
जिस तरह ब्रह्मा के चार मुख हैं और उनके हर मुख से एक वेद की उत्पत्ति हुई है. यानी पूर्व के मुख से ऋग्वेद, दक्षिण से यजुर्वेद, पश्चिम से सामवेद और उत्तर वाले मुख से अथर्ववेद की उत्पत्ति हुई है. इसे ही आधार बनाकर शंकराचार्य जी ने 4 वेदों और उनसे निकले अन्य शास्त्रों को सुरक्षित रखने के लिए 4 मठ यानी पीठों की स्थापना की. ये चारों पीठ एक-एक वेद से जुड़े हैं. जिसमें ऋग्वेद से गोवर्धनमठ (जगन्नाथ पुरी), यजुर्वेद से श्रंगेरी मठ (रामेश्वरम्), सामवेद से शारदा मठ( द्वारिका) और अथर्ववेद से ज्योतिर्मठ (बद्रीनाथ) जुड़ा है. माना जाता है कि ये आखिरी मठ है और इसकी स्थापना के बाद ही जगतगुरु आदि शंकराचार्य जी ने समाधि ले ली थी.
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