संदीप भम्मरकर,भोपाल/झाबुआ। मध्यप्रदेश में धर्मांतरण रोकने के लिए सरकार हर संभव प्रयास कर रही है. धर्मांतरण नहीं होने के दावे भी किए जा रहे है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और बयां कर रही है. धर्मांतरण के इस खुलासे के बाद राजनीतिक गलियारों और प्रशासनिक महकमे में हड़कंप मच गया है. सरकार धर्मांतरण रोकने कह कह रही है, लेकिन अफसर सुनने को तैयार नहीं है. बाबाओं के दरबार में घर वापसी की तस्वीरें लगातार सामने आ रही हैं. जिससे लगता है कि धर्मांतरण का खेल लगातार जारी है. हम एक ऐसे गांव के बारे में बता रहे हैं, जो कि मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में स्थित है. जहां के हालात पाकिस्तान से बदतर हैं. पूरे गांव में धर्मांतरण हो चुका है, केवल एक ही परिवार बाकी रह गया है. लल्लूराम डॉट कॉम की टीम के पड़ताल से अधिकारियों के होश फाख्ते हो गए हैं.
झाला डाबड़ गांव बना इसाई, एक परिवार ही बचा हिंदू
दरअसल हम बात कर रहे हैं झाबुआ के मेघनगर इलाके के झाला डाबड़ गांव की, जहां करीब 4 हजार की आबादी है और करीब 400 घर हैं. एक की महिला के परिवार पर गांव का जुल्म बरस रहा है. बीते कुछ सालों में एक-एक करके गांव के सारे परिवार हिन्दू से ईसाई हो चुके हैं. केवल इस महिला का परिवार बाकी रह गया है. गांव वालों ने जबरन घर के कागजात, परिवार के सदस्यों के आधार कार्ड और राशन कार्ड हथियाकर सरकारी योजनाओं के फायदे छीन लिए हैं. कश्मीर की तरह जब-तब घर पर पत्थर बरसाए जाते हैं. फिर जुल्म ढाने वाली भीड़ भी आ जाती है, जो कहती है प्रेयर करना शुरू कर दो. चर्च चलो. हिन्दू धर्म छोड़ दो और ईसाई बन जाओ. झाला डाबर गांव के सारे लोग ईसाई बन गए हैं. केवल एक परिवार ही बाकी रह गया है, उस पर भी ईसाई धर्म अपनाने का दबाव बनाया जा रहा है.
1960 से लेकर अब तक धर्मांतरण का कोई मामला नहीं- कलेक्टर
एक तरफ पूरे गांव का जुल्म है तो दूसरी तरफ इस महिला का परिवार जो हिंदुस्तान में रहकर पाकिस्तान जैसे हालात झेल रहा है. झाबुआ कलेक्टर का एक चौंकाने वाला जवाब सूचना के अधिकार के तहत हासिल किया गया है. इसमें लिखा है कि 1960 से लेकर अब तक धर्मांतरण का कोई मामला सामने नहीं आया है. दूसरी तरफ यह गांव है, जो बीते कुछ ही सालों में हिन्दुओं के गांव से ईसाइयों का गांव बन गया. इसी महिला के परिवार के देवर चंद महीने पहले ही हिन्दू से ईसाई हुए हैं, लेकिन प्रशासन के अधिकारी बेखबर हैं. इसी नज़रअंदाज़ी और लापरवाही का नतीजा है कि झाबुआ के अंदरुनी गांवों के घर-दीवारों पर ईसाइयत के निशानियां बढ़ती जा रही हैं.
कच्ची झुग्गी बन गए पक्के मकान
लल्लूराम डॉट कॉम की टीम ने जब झाबुआ और अलीराजपुर के बीच तहकीकात शुरू की, तो रास्ते में गांव में जगह-जगह चर्च दिखाई दे रहे थे. आदिवासी जिले में परंपरागत कच्ची झुग्गी का जगह पक्के और बड़े मकान दिखाई देने लगे. मकानों का आकार बताता है कि यह पीएम आवास योजना से बने मकान नहीं हैं. पक्के मकान आदिवासी गांवों में विकास की कहानी खुद बयां करते हैं.
मिलती है आर्थिक मदद
गांव के युवक का कहना है कि उसके पिता ही ईसाई बन गए थे. पक्का मकान उन्होंने ही बनवाया है, फिर आसपास के लोग भी ईसाई बने. उनके भी पक्के मकान बन गए. वे पढ़ने लिखने के लिए करीब के ही मिशनरी स्कूल संत तेरेसा स्कूल में जाते थे. बाद में मेघनगर के सरकारी कॉलेज में पढ़ाई की. युवक का इंग्लिश लिटरेचर में एमए है और मेघनगर में एक प्राइवेट स्कूल में इंग्लिश पढ़ाता है. वह यह भी बता रहा है कि मुसीबत या परेशानी के वक्त फादर और बिशप डाइस से मदद मिलती है. यह मदद आर्थिक भी होती है.
हिन्दू छोड़ ईसाई रीति रिवाज का पालन
आदिवासी गांवों में तस्वीर तेजी से बदल रही है. गांव के बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल की सुविधा है. हॉस्टल की सुविधा भी है. स्कूल में स्पोर्ट्स जैसी गतिविधियां भी चलती है. आदिवासी बच्चे अब मजदूरी या खेती की बजाय पढ़ाई-लिखाई में दिलचस्पी दिखा रहे हैं. पढ़ लिख कर इज्जतदार नौकरी करते हैं और अंग्रेजी में बात कर रहे हैं. उनके पास पक्के मकान हैं. हफ्ते में एक बार होने वाली प्रेयर में शामिल होकर और अपने गांव में ईसाई बन चुके लोगों को देखकर मान सिंह जब मार्टिन हो जाता है, तो उसकी जीवनशैली भी बदल जाती है. यहां के लोग अब हिन्दू रीति रिवाज छोड़कर ईसाई रीति रिवाज का पालन करने लगे हैं.
फादर ने 1999 में ईसाई धर्म अपनाया
परिवार में मौत होने पर अब अंतिम संस्कार में शव को अग्निदाह नहीं देते हैं, बल्कि शव को ताबूत में रखकर ईसाई कब्रिस्तान में दफन करने पहुंचते हैं. घर में हिन्दू देवी देवताओं की जगह ईसा मसीह की तस्वीर के सामने प्रार्थना की जाती है. इन सबकी प्रेरणा इलाके के चर्च के फादर से मिलती है. गांव वाले जिस फादर का ज़िक्र कर रहे हैं, उन्हीं फादर खेतान जॉर्ज मेढ़ा से मिलने हम भी पहुंचे. कलेक्टर का पत्र कहता है कि 1960 से अब तक कोई धर्मांतरण नहीं हुआ, लेकिन फादर कहते हैं कि वे 1999 में ईसाई धर्म अपनाया था और 2013 में फादर बने. ये सबसे बड़ा खुलासा है जो सरकारी चिट्ठी को गलत साबित करता है.
अधिकारी गंभीरता से नहीं लेते शिकायत
इस इलाके में कई हिन्दूवादी संगठन काम कर रहे हैं, जो धर्मांतरण जैसी गतिविधियों पर नजर रखते हैं. प्रशासन को कई बार इसकी शिकायत की गईं, लेकिन प्रशासन इन शिकायतों को गंभीरता से लेकर ज़मीनी ठोस कार्रवाई की बजाय केवल इनकार करने के बहाने तलाशता रहता है.
लालच देकर करा रहे धर्मांतरण
विहिप नेता आज़ाद प्रेम सिंह डामोर का कहना है कि आदिवासी शिक्षा और रोजगार से वंचित है. मिशनरीज़ यही सुविधाएं देकर धर्मांतरण कराती हैं. वैसे, झाबुआ, धार, अलीराजपुर जैसे आदिवासी जिले संविधान की अनुसूचित क्षेत्र की सूची में हैं. जिससे इनकी संस्कृति के संरक्षण के लिए यहां कोई भी अन्य गतिविधि संचालित नहीं की जा सकती हैं. कानून की इसी धारा के तहत यहां की ज़मीन की खरीद-फरोख्त भी नहीं की जा सकती है. लेकिन मिशनरीज यहां चर्च, कब्रिस्तान, स्कूल और अस्पताल खोलती जा रही है. प्रशासन को कुछ दिखाई नहीं देता. आज़ाद के मुताबिक अब तक झाबुआ की 50 फीसदी आबादी हिन्दू से ईसाई बन चुकी है.
झाबुआ में 50 फीसदी आदिवासी बने ईसाई
आदिवासियों को साधने के लिए राजनैतिक दलों ने आकाश-पाताल एक कर दिया है, लेकिन शायद शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा देने में नाकाम है. मजदूरी करके मुफलिसी के दौर से गुजर रहे आदिवासियों को शायद मिशनरीज़ गले लगा रही है. यह सुविधा इतनी फायदेमंद है कि वह खुशी-खुशी हिन्दू से ईसाई बनता जा रहा है. हिन्दूवादी संगठनों का आंकड़ा है कि अब तक अकेले झाबुआ में 50 फीसदी आदिवासी ईसाई हो चुके है. और इधर, धर्मांतरण पर सियासी बहस लगातार जारी है.
क्या रुक पाएगा धर्मांतरण ?
धर्मांतरण सरकारी बयानबाज़ी या सियासी बहस का हिस्सा भर है. अफसर मानने को ही तैयार नहीं है कि धर्मांतरण लगातार चल रहा है. हिन्दूवादी संगठन लगातार धर्मांतरण का दावा करते हैं और धर्मांतरण का सिलसिला बदस्तूर जारी है. अब इसे आदिवासियों की बेबसी कहें या विकास की तरफ एक और कदम कि वे खुशी-खुशी हिन्दू धर्म छोड़कर किसी और धर्म में शामिल हो जाते हैं. अब देखना यह होगा कि सरकार और सरकारी सिस्टम धर्मांतरण पर लगाम लगा पाती या फिर यह सिलसिला यूं ही बदस्तूर जारी रहेगा.
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