10th anniversary of Jhiram incident : पी. रंजनदास, बीजापुर. महेंद्र कर्मा से कहता हूं, भैया सुरक्षा जैसी होनी चाहिए थी, वैसी नहीं है, तो हंसकर वो कहते हैं, क्या होगा, हम तो ईश्वर के भरोसे हैं. तब हमें तनिक आभास नहीं था कि चंद घटों बाद मेरे राजनीतिक गुरु महेंद्र कर्मा हमारी सलामती के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर देंगे. गोलियों की तड़तड़ाहट के बीच आज भी दिलेरी से कहे उनके शब्द…मैं हूं महेंद्र कर्मा, छोड़ दो गोलीबारी..कानों में गूंजते हैं और आंखें भर आती है. यह कहना है देश को झकझोर देने वाली झीरम नरसंहार में बच निकले युवा आयोग के पूर्व सदस्य अजय सिंह का, जो दिवंगत महेंद्र कर्मा को अपना राजनीतिक गुरु मानते हैं.

झीरक कांड की कहानी बताते प्रत्यक्षदर्शी अजय सिंह

लल्लूराम डाॅट काम से बातचीत में झीरम घटना के प्रत्यक्षदर्शी अजय सिंह ने बताया, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दिवंगत नंदकुमार पटेल के नेतृत्व में परिवर्तन यात्रा उत्साह के वातावरण में आगे बढ़ रहा थी. 25 मई 2013 को सुबह करीब 10 बजे नंदकुमार पटेल के साथ यात्रा पर जगदलपुर से सुकमा के लिए कांग्रेसी पूरे जोश के साथ रवाना होते हैं. काफिले में शामिल एक वाहन में सत्तार अली, मलकीत सिंह गेंदू, विक्रम मंडावी, महेंद्र कर्मा के साथ वे भी सवार होते हैं. रास्ता लंबा था. जगदलपुर से सुकमा सड़क भी खस्ताहाल, लिहाजा वाहनों की रफ्तार कम थी. महेंद्र कर्मा वाहन में एक गाने पर गुनगुनाते हंसते हम सबके साथ थे. इस बीच सत्तार अली और उन्होंने महेंद्र कर्मा से कहा कि भैया सुरक्षा जैसा होना चाहिए वैसा नजर नहीं आ रही है.

अजय सिंह के प्रश्न का जवाब देते महेंद्र कर्मा कहते हैं हम चलते है ईश्वर के भरोसे, ऐसे ही हंसी मजाक करते सभी सुकमा के सभा स्थल पहुंचते हैं. सभा मे नेतागण बारी बारी से उदबोधन देते हैं और सभा समाप्त होने के बाद सर्किट हाउस पहुंचकर भोजन कर केशलूर के लिए परिवर्तन यात्रा का काफिला रवाना होता है. वापसी के वक्त भी हम महेंद्र कर्मा के साथ उसी वाहन में सवार होकर केशलूर के लिए रवाना होते हैं. तोंगपाल में परिवर्तन यात्रा का स्वागत जोश के साथ होता है. इसके बाद काफिला आगे बढ़ता है. काफिले में उत्साह का वातावरण होता है, लेकिन अगले कुछ घंटों में सब कुछ मेरी आंखों के सामने तबाह हो जाता है.

काफिला जैसे ही झीरम घाटी पहुंचता है, गोलीबारी की आवाज कानों में सुनाई पड़ती है. पूरा का पूरा काफिला अचानक ठहर जाता है. प्रत्यक्षदर्शी अजय सिंह के मुताबिक, एक बारगी लगा कि कार्यकर्ता पटाखे फोड़कर परिवर्तन यात्रा का स्वागत कर रहे हैं. किसी को कुछ समझ आता कि इसी बीच जिस वाहन में बैठे थे गोली आकर लगी तब समझते देर नहीं लगी. हम समझ चुके थे कि हम पर नक्सली हमला हो चुका है. नक्सलियों से घिर चुके हैं. हमला हम लोगों के लिए पहला नहीं था, इसलिए सबने सोचा कि हमेशा की तरह मामूली होगा, लेकिन हम गलत थे. हमला बहुत ही भयानक था. गोलीबारी रुकने का नाम नहीं ले रही थी. हम सबने वाहन से उतरकर अपनी-अपनी जान बचाई.

शहीद महेंद्र कर्मा की प्रतिमा

अजय ने लल्लूराम डाॅट काम को बताया, मलकीत, विक्रम और महेंद्र कर्मा बाए की ओर उतरे, मैं और सत्तार दाएं की ओर उतरकर एक चट्टान की आड़ में छिपे थे. दोपहर लगभग 3 बजे से लेकर शाम ढलते तक गोली चलती रही, एक-एक कार्यकर्ता अपने को बचा रहा था. नक्सली सड़क पर आ चुके थे. चारों तरफ से आवाज आ रही थी. आखिरकार महेंद्र कर्मा ने हम सबकी जान बचाई. दिलेरी से सामने आए और कहा, मैं हूं महेंद्र कर्मा, छोड़ दो गोलीबारी, महेंद्र कर्मा के ये अंतिम शब्द जिसे हम सबने सुना था, वह आवाज दोबारा सुनाई नहीं दी. तब तक गोलीबारी थम चुकी थी.

अंत में एक महिला नक्सली सत्तार अली और मुझे पकड़कर पहाड़ी में ले गई, जहां अन्य नक्सली महेंद्र कर्मा के शव के पास नाच गाने कर रहे थे. एक उत्साह का माहौल मातम में बदल चुका था. हमने अपने नेताओं को खो दिया था. साथ ही उन कार्यकर्ताओं को भी खो दिया जो हमारे साथ चल रहे थे. उस लड़ाई में पुलिस के जवान भी लड़ते शहीद हुए. आज झीरम घटना के 10 साल होने जा रहे हैं. मामले पर राजनीति भी खूब हुई है. आज भी न्याय की उम्मीद में आस लगाए बैठे हैं. अजय ने कहा, घटना पर राजनीति के बजाए इसका सच बाहर आना चाहिए और यही झीरम के शहीदों को असल श्रद्धांजलि होगी.