Shree Jagannath Rath Yatra 2023. पिछले 15 दिनों से अस्वस्थ चल रहे महाप्रभु जगन्नाथ सोमवार को पूरी तरह स्वस्थ हो गए हैं. आज वे अपने श्रीमंदिर से बाहर निकलकर अपने भक्तों के बीच जाएंगे. जिसके साथ ही रथयात्रा महोत्सव (Jagannath Rath Yatra 2023) की शुरुआत होगी.

आज से विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा महोत्सव (Jagannath Rath Yatra 2023) शुरू हो रहा है. जो कि 1 जुलाई तक चलेगा. रथयात्रा को लेकर पुरी के जगन्नाथ मंदिर में तैयारियां पूरी हो चुकी है. तीनों रथ महाप्रभु के इंतजार में तैयार खड़े हैं. महोत्सव के दौरान कई रस्मों और परंपराओं का निर्वहन किया जाएगा. वैसे इस महोत्सव की शुरुआत तो 4 जून स्नान पूर्णिमा से हो चुकी है. अब आज महाप्रभु जगन्नाथ अपने बड़े भइया बलभद्र, बहन सुभद्रा और सुदर्शन के साथ भक्तों का हालचाल जानने के लिए मंदिर से बाहर निकलेंगे. रथ पर सवार होकर तीनों भगवान भक्तों से मिलते हुए अपनी मौसी मां गुंडिचा के घर जाएंगे. जहां वे 7 दिन तक रहेंगे. 20 जून से शुरु ये महोत्सव 1 जुलाई तक चलेगा. इस बीच-

  • 20 जून को रथयात्रा
  • 24 जून हेरा पंचमी
  • 27 जून संध्या दर्शन
  • 28 जून बाहुड़ा यात्रा
  • 29 जून को सूना भेषा
  • 30 जून को अधरपना
  • 1 जुलाई को नीलाद्री बीजे की परंपरा निभाई जाएगी.

रथ पर झाड़ू लगाते हैं राजा

रथयात्रा के दिन भगवान की मंगल आरती के बाद उन्हें यात्रा के लिए तैयार किया जाता है. इसके बाद बड़ी संख्या में भक्त अपने भगवान को पहंडी (नचाते हुए) कराते हुए रथ तक ले जाते हैं. रथ में बैठाने के बाद जगतगुरु शंकराचार्य तीनों रथों में विराजमान श्री विग्रहों की पूजा करते हैं. इसके बाद गजपति महाराज (राजा) का आगमन होता है. महाप्रभु की पूजा के बाद राजा तीनों रथों पर सोने के हत्थे वाली झाड़ू लगाते हैं. इस रस्म को ‘छेरा पहरा’ कहा जाता है. इसके पीछे ये संदेश होता है कि भगवान के आगे कोई छोटा, कोई बड़ा नहीं होता, सब समान होते हैं. इस रस्म के बाद रथ आगे बढ़ता है. इस बीच भगवान भक्तों से मिलते हुए मौसी के घर पहुंचते हैं.

रथ तोड़ने के लिए अपने दूतों को भेजती हैं मां लक्ष्मी

हेरा पंचमी, रथयात्रा के दौरान निभाई जाने वाली एक महत्वपूर्ण रस्म है. रथयात्रा के पांचवें दिन, यानी आषाढ़ शुक्ल पंचमी को माता महालक्ष्मी द्वारा किया जाता है. हेरा पंचमी मुख्य रूप से गुण्डिचा मंदिर में मनाई जाती है. इस दिन मुख्य मंदिर (जगन्नाथ धाम) से भगवान जगन्नाथ की पत्नी माता लक्ष्मी, सुवर्ण महालक्ष्मी के रूप में गुंडिचा मंदिर में आती हैं. उन्हें मंदिर से गुण्डिचा मंदिर तक पालकी में ले जाया जाता है. जहां पुजारी उन्हें गर्भगृह में ले जाते हैं और भगवान जगन्नाथ से मिलाते हैं. सुवर्ण महालक्ष्मी भगवान जगन्नाथ से पुरी के मुख्य मंदिर अपने धाम श्रीमंदिर में वापस चलने का आग्रह करती हैं.

भगवान जगन्नाथ उनके अनुरोध को स्वीकार करते हैं और माता लक्ष्मी को उनकी सहमति के रूप में एक माला (सनमाति माला) देते हैं. फिर शाम को माता लक्ष्मी गुंडिचा मंदिर से जगन्नाथ मंदिर लौटती हैं. लेकिन मुख्य मंदिर प्रस्थान से पहले, वह क्रोधित हो जाती है और अपने एक सेवक को नंदीघोष (जगन्नाथ जी का रथ) के एक हिस्से को नुकसान पहुंचाने का आदेश देती है. जिसे रथ भंग कहा जाता है.

माता महालक्ष्मी गुंडिचा मंदिर के बाहर एक पेड़ के पीछे से इन सभी कार्यों के लिए निर्देश देती हैं. कुछ समय बाद माता हेरा गौरी साही नामक गोपनीयता मार्ग के माध्यम से शाम को जगन्नाथ मंदिर पहुंच जाती हैं.

7 दिन बाद श्रीमंदिर वापस लौटते हैं महाप्रभु

देवशयनी एकादशी के दिन से भगवान जगन्नाथ चार महीने के लिए अपनी निद्रा में चले जाते हैं. इससे पहले, भगवान जगन्नाथ को अपने मुख्य मंदिर में लौटना आवश्यक होता है. अतः रथयात्रा के 7 दिन बाद, दशमी तिथि पर अपने मुख्य मंदिर लौटते हैं. जिसे बहुड़ा यात्रा के नाम से जाना जाता है.

रथ पर किया जाता है भगवान का श्रृंगार

भगवान का रथ जब श्रीमंदिर पहुंचता है तब उन्हें तुरंत मंदिर नहीं ले जाया जाता. इससे पहले कुछ और रस्में होती हैं. इसे राजाधिराज बेशा, राजा बेशा और राजराजेश्वर बेशा के नाम से जाना जाता है. इसमें जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा को सोने के गहनों से सजाया जाता है. सुनाभेषा की रस्म साल में 5 बार निभाई जाती है. यह आमतौर पर माघ पूर्णिमा, बहुड़ा एकादशी, दशहरा, कार्तिक पूर्णिमा और पौस पूर्णिमा को मनाया जाता है.

जानकारी के मुताबिक देवताओं को पहनाए जाने वाले सोने के गहनों का कुल वजन 208 किलोग्राम से ज्यादा था. जो शुरू में 138 डिजाइनों में बनाया गया था. हालांकि, अब केवल 20-30 डिजाइन का उपयोग ही किया जाता है.

निभाई जाती है अधर पना की रस्म

सुना भेषा के एक दिन बाद, जब भाई-बहन सुनहरे पोशाक में चमकते हैं, तो मीठे पेय से भरे विशाल बर्तन तीन रथों पर प्रसाद के रूप में चढ़ाए जाते हैं. आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वादशी के दिन अधर पना की रस्म होती है. मिट्टी के बर्तन की उंचाई भगवान के होंठों (अधर) तक आती है. इस पेय को बाद में गिरा दिया जाता है. मान्यता है कि भगवान के साथ प्रेत भी उनकी यात्रा में शामिल रहते हैं. तो यह पेय उनके लिए ही रहता है.

रसगुल्ला देकर रुठी हुई मां लक्ष्मी को मनाते हैं भगवान जगन्नाथ

नीलाद्री बीजे वार्षिक रथ यात्रा उत्सव के अंत और भगवान जगन्नाथ की गर्भगृह में वापसी का प्रतीक है. ये भी एक अद्भुत रस्म है. नीलाद्री बिजे समारोह के दिन, भगवान अपने भाई और बहन के साथ श्री मंदिर लौटते हैं. नीलाद्री बीजे के दिन भगवान जगन्नाथ देवी लक्ष्मी को उपहार के रूप में रसगुल्ला भेंट करते हैं.

दरअसल जब भगवान रथयात्रा में जाते हैं तो मां लक्ष्मी उन्हें साथ नहीं ले जाने पर रूठ जाती हैं. जब जगन्नाथ वापस लौटते हैं तब मां लक्ष्मी अपने जेठ बलभद्र और देवी सुभद्रा को तो अंदर आने दे देती हैं, लेकिन महाप्रभु जगन्नाथ को आता देख वे गर्भगृह के कपाट बंद कर लेती हैं. जिन्हें मनाने के लिए भगवान जगन्नाथ उन्हें रसगुल्ले और साड़ी भेंट करते हैं. पवित्र त्रिमूर्ति का विश्व प्रसिद्ध रथ यात्रा उत्सव नीलाद्रि बीजे अनुष्ठान के साथ संपन्न होता है.