भारतीय संविधान में उप प्रधानमंत्री और उप मुख्यमंत्री पद के बारे में कोई जिक्र नहीं है. लेकिन इन पदों का एक राजनीतिक संदेश होता है. छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव से महज कुछ महीने पहले भूपेश बघेल की अगुआई वाली सरकार में टीएस बाबा को उपमुख्यमंत्री बनाए जाने के राजनीतिक संदेश भी स्पष्ट हैं.

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 74 और 75 मंत्रिपरिषद के गठन से संबंधित हैं. अंग्रेजी राज से मुक्ति के बाद देश में लोकतांत्रिक शासन की जिस वेस्टमिंस्टर प्रणाली को अपनाया गया उसमें प्रधानमंत्री पद को First Among Equal माना गया है. यानी सारे मंत्री बराबर हैं और प्रधानमंत्री उनमें सबसे आगे हैं. यही बात राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लेकर है. यह अलग बात है कि मजबूत बहुमत वाली सरकारों में, चाहे फिर वह केंद्र की हो या राज्यों की, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री शक्तिशाली होता है और सारे मंत्री राष्ट्रपति या राज्यपाल के नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के विश्वास कायम रहने तक पद पर बने रह सकते हैं.

अनुच्छेद 74 (1) के मुताबिक, ‘राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान, प्रधानमंत्री होगा…’ इसी तरह से अनुच्छेद 75 (1) के मुताबिक ‘प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री की सलाह पर करेगा.’

इन दोनों अनुच्छेदों में कहीं भी उप प्रधानमंत्री पद का जिक्र नहीं है. इसके बावजूद 15 अगस्त 1947 को पंडित जवाहरलाल नेहरू की अगुआई वाली देश की पहली सरकार के समय से उपप्रधानमंत्री पद पर नियुक्ति होती रही है. सरदार वल्लभ भाई पटेल के रूप में देश को पहला उपप्रधानमंत्री मिला था. विभाजन के बाद एक नए बन रहे देश की विषम परिस्थितियों में यह सूझबूझ भरा फैसला था और अपने मतभेदों के बावजूद नेहरू और पटेल ने सत्ता संतुलन कायम करते हुए अपनी जिम्मेदारियां निभाई थीं.

पटेल के बाद 1967 में इंदिरा गांधी की सरकार में मोरारजी देसाई भी उप प्रधानमंत्री रहे. 1977 में मोरारजी देसाई की अगुआई वाली जनता पार्टी में चरण सिंह और जगजीवन राम के रूप में दो उप प्रधानमंत्री हुए. उनके बाद यशवंत राव चव्हाण, देवीलाल और लालकृष्ण आडवाणी भी उप्र धानमंत्री रह चुके हैं.

यह सबको पता है कि प्रथम उप प्रधानमंत्री पटेल को छोड़कर बाकी के सारे उप प्रधानमंत्री राजनीतिक संतुलन के साथ ही निजी महत्वकांक्षाओं के टकराव को साधने के लिए बनाए गए थे. जहां तक राज्यों में उप मुख्यमंत्री पद की बात है, तो मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद की नियुक्ति से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 163 और 164 में इसका कोई जिक्र नहीं है. लेकिन अब तक विभिन्न राज्यों में दर्जनों उप मुख्यमंत्री बनाए जा चुके हैं.

इसी समय आंध्र प्रदेश, अरुणाचल, बिहार, हरियाणा, हिमाचल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मेघालय, नगालैंड, उत्तर प्रदेश और अब छत्तीसगढ़ सहित 11 राज्यों में उप मुख्यमंत्री काम कर रहे हैं सबसे दिलचस्प मामला आंध्र प्रदेश का है, जहां मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी ने राज्य के विभिन्न क्षेत्रों के लिए पांच उप मुख्यमंत्री बना रखे हैं !

गठबंधन की राजनीति में उप मुख्यमंत्री पद सत्ता संतुलन कायम करने में मददगार तो साबित हो ही रहा है, एक दलीय सरकार में भी नेताओं की महत्वाकांक्षाओं और जातीय अस्मिताओं के तुष्टीकरण के लिए भी इसका सहारा लिया जा रहा है. सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के दो उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक दो प्रभावशाली जातीय समूहों ओबीसी और ब्राह्मण का प्रतिनिधित्व करते हैं और कहने की जरूरत नहीं कि उनकी नियुक्तियां इसे ध्यान में रखकर ही की गई हैं.

महाराष्ट्र की शिंदे-भाजपा सरकार में देवेंद्र फड़नवीस भले ही उप मुख्यमंत्री हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से वह यह जतलाने में गुरेज नहीं करते कि सरकार की ड्राइविंग सीट पर भले ही एकनाथ शिंदे बैठे हैं, लेकिन स्टेयरिंग उनके हाथ में है !

बिहार में नीतीश कुमार की अगुआई वाली सरकार में तेजस्वी यादव को उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल चीफ मिनिस्टर इन वेटिंग के रूप में देख रही है. संभव है कि विपक्षी दलों को एकजुट करने के मुहिम में जुटे नीतीश कुमार आने वाले समय में तेजस्वी के लिए पद छोड़ दें. अलबत्ता हरियाणा का मामला कुछ अलग है, जहां मनोहरलाल की अगुआई वाली भाजपा सरकार में उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला का पद पर बने रहना उनकी अपनी पार्टी के अस्तित्व के लिए भी जरूरी है.

नगालैंड जैसे छोटे राज्य में भाजपा-एनडीपीपी सरकार में दो-दो उप मुख्यमंत्री का होना प्रशासनिक सुगमता को नहीं, बल्कि राजनीतिक संतुलन को ही अधिक दिखाता है.

देश की दो प्रमुख पार्टियां भाजपा और कांग्रेस के लिए अब उप मुख्यमंत्री पद आजमाया हुआ फॉर्मूला है. कांग्रेस ने हाल ही में हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के विधानसभा चुनाव जीते हैं और इन दोनों ही जगहों पर उसने उप मुख्यमंत्री नियुक्त किए हैं. हालांकि कर्नाटक का मामला हिमाचल से एकदम अलग है. बल्कि कर्नाटक अपने क्षत्रों को साधने के लिए कांग्रेस का नया टैम्पलेट बन गया है. इसका श्रेय कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ ही कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को दिया जा सकता है. यही वजह है कि कर्नाटक में पूरे चुनाव के दौरान सिद्धरमैया और डीके शिवकुमार के बीच आमतौर पर टकराव की स्थिति नहीं बनी. नतीजे आने के बाद मुख्यमंत्री पद पर दोनों की दावेदारी थी, लेकिन अंततः शिवकुमार को उप मुख्यमंत्री पद से संतुष्ट किया गया.

लेकिन छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव से महज कुछ महीने पहले इस फॉर्मूले को आजमाने की क्या वजह हो सकती है? वास्तव में टीएस बाबा ने सचिन पायलट के उलट कांग्रेस आलाकमान से टकराने की कभी कोशिश भी नहीं की थी. बाबा को छत्तीसगढ़ की सियासत में एक सौम्य और मृदुभाषी नेता के तौर पर ही जाना जाता है. पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली जीत का श्रेय भूपेश के साथ ही बाबा को भी जाता है.

संभव है कि पिछले विधानसभा चुनाव में मिली जीत के बाद राहुल गांधी के समक्ष भूपेश और बाबा के बीच जिस ढाई-ढाई साल वाले कथित समझौते की बात की गई थी, उसकी यह भरपाई हो. इससे कांग्रेस को नुक्सान कुछ नहीं है. छत्तीसगढ़ के बारे में लिए गए इस फैसले का एक बड़ा संदेश यही है कि कांग्रेस साहसिक फैसले लेने से गुरेज नहीं कर रही है.

वास्तव में टीएस बाबा को उप मुख्यमंत्री नियुक्त कर कांग्रेस ने भाजपा को ही नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ में प्रचलित ‘फूल छाप’ कांग्रेसियों को भी चौका दिया है !

(यह लेख वरिष्ठ पत्रकार सुदीप ठाकुर का है. हाल ही में उनकी चर्चित किताब ‘ दस साल, जिनसे देश की सियासत बदल गई’ प्रकाशित हुई थी)