चालाक कलेक्टर

आईएएस अफसरों को लगने लगा है कि कलेक्टरी करते-करते जितना बना सको, उतना कम है. वैसे भी ब्यूरोक्रेसी में कहा जाता है कि कलेक्टरी के बाद तो सिर्फ बाबूगिरी ही करनी होती है. हालांकि कई अफसर इस बाबूगिरी में भी जामन की एक बूंद से पूरी दही जमा लेते हैं. बहरहाल एक जिले में पदस्थ कलेक्टर को लेकर चर्चा गुलजार हुई है. चर्चा आदिवासियों की जमीन से जुड़ी है. राज्य में कई कलेक्टरों ने आदिवासी जमीन, गैर आदिवासी को बेचने की अनुमति देने का काम किया है. जाहिर सी बात है कि इस कलेक्टर ने कुछ नया नहीं किया, लेकिन ये साहब दूसरे कलेक्टरों से एक कदम आगे बढ़ गए. पहले आदिवासी जमीन, किसी गैर आदिवासी को बेचने की अनुमति दी और बाद में कुछ जमीन अपने नाम पर ट्रांसफर करवा लिया. कलेक्टरों की कलम की ‘स्याही’ में बड़ा दम होता है. जो काम ‘पीएम’ और ‘सीएम’ नहीं कर सकते, वह एक ‘डीएम’ कर सकता है. ये कलेक्टर चालाक थे, चालाकी दिखा गए.

एक और ‘आईएएस’

समीर विश्नोई के बाद रानू साहू ईडी की गिरफ्त में आ ही गई. ईडी और रानू महीनों से एक-दूसरे को छंकाते रहे. पूछताछ होती रही. अटकलें लगती रही, मगर रानू बचती रहीं. इस दफे ईडी ने मौका नहीं दिया. सरकारी बंगले में अचानक पहुंचकर छापा मारा. कड़ी पूछताछ की और अगले दिन गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश कर दिया. रिमांड 14 दिनों की मांगी, मगर कोर्ट ने तीन दिनों का ग्रांट किया. कहा जा रहा है कि रानू साहू की गिरफ्तारी के पीछे ‘बीजेपी’ का बड़ा हाथ है. बीजेपी के कई नेता महीनों से इस उधेड़बुन में लगे थे. कोल मामले में दो आईएएस अफसरों के ईडी की जद में आने से राज्य की ब्यूरोक्रेसी सकते में है. उधर आईएएस कॉन्क्लेव शुरू हुआ, इधर कार्रवाई हो गई. जाहिर है कॉन्क्लेव में अफसरों के बीच इस गिरफ्तारी पर खूब बतकही होगी. 

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एक थे ‘जी पी सिंह’

राज्य सरकार की अनुशंसा पर केंद्र सरकार ने निलंबित आईपीएस जी पी सिंह को अनिवार्य सेवानिवृत्ति दे दी. जी पी सिंह अपनी हरकतों की वजह से सरकार की नजर में खटक गए थे. आय से अधिक संपत्ति मामले में ईओडब्ल्यू ने उन्हें हिरासत में लिया था. जेल दाखिल हुए. महीनों बाद जमानत पर छूटे. 1994 बैच के इस आईपीएस के लिए कहा जाता था कि राज्य में लंबे समय तक डीजीपी बने का रिकार्ड बना सकते हैं, लेकिन विधि का विधान कुछ और ही था. कर्म आड़े आ गया. राज्य सरकार ने अनिवार्य सेवानिवृत्ति का जो ग्राउंड केंद्र को भेजी अनुशंसा में बनाया था, वह अनिवार्य सेवानिवृत्ति की परिधि में आता था, सो इस दफे केंद्र ने भी देरी नहीं की. जी पी सिंह को खुद की बिरादरी की भी सिंपैथी नहीं मिली. एक अफसर कहते हैं कि सिंपैथी जैसा कुछ किया था भी नहीं कि बिरादरी से मिल जाती. जी पी सिंह के पहले के सी अग्रवाल और राजकुमार देवांगन को भी केंद्र सरकार ने राज्य की अनुशंसा पर अनिवार्य सेवानिवृत्ति दे दी थी. के सी अग्रवाल इस फैसले के खिलाफ कैट चले गए थे. वहां उनके पक्ष में फैसला आया था. सेवा बहाल हुई थी. कहते हैं कि के सी अग्रवाल एक उच्च अधिकारी की आंख में चुभते थे, सो सालों पुरानी एक शिकायत को आधार बनाकर अनिवार्य सेवानिवृत्ति की अनुशंसा कर दी गई थी. देवांगन के आंगन में खिलने वाले हर एक फूल की जानकारी सिस्टम से लेकर सरकार तक को थी. उन्हें राहत मिलने की बात बेमानी थी. खैर, कहा जा रहा है कि जी पी सिंह केंद्र के इस फैसले के खिलाफ कोर्ट या कैट का रुख अख्तियार कर सकते हैं. आय से अधिक संपत्ति के मामले में घिरे जी पी सिंह को लेकर शीर्ष कोर्ट ने भी कड़ी टिप्पणी की थी, ऐसे में कैट या कोर्ट से फौरी तौर पर राहत मिल जाए, ऐसा लगता नहीं. फिलहाल राज्य की पुलिसिया बिरादरी में कहा जा रहा है, एक थे ‘जी पी सिंह’.

‘निपटाने’ की प्लानिंग  

प्रेमसाय सिंह टेकाम की मंत्रिमंडल से जब विदाई हुई, तब वह खासे नाराज हुए. अपने बयान में यह कहने से गुरेज तक नहीं किया कि ‘मैंने इस्तीफा दिया नहीं, मुझसे मांगा गया’. राज्य योजना आयोग का अध्यक्ष बनाकर उनकी इस टीस को मुख्यमंत्री ने दूर किया. राज्य योजना आयोग के अध्यक्ष मुख्यमंत्री ही होते रहे हैं, लाजमी था कि नियम कानून में संशोधन करना, सो विधानसभा में एक बिल लाया गया. बीजेपी विधायकों ने इस पर खूब तंज कसा. बृजमोहन अग्रवाल पूछ बैठे, प्रेमसाय जी योजना आयोग में किस चीज की प्लानिंग करेंगे? प्रेमसाय सिंह टेकाम ने जो जवाब दिया, वैसे जवाब की उम्मीद किसी ने नहीं की थी. उन्होंने झट से कहा ‘ बीजेपी को निपटाने की प्लानिंग करेंगे’. पूरा सदन ठहाकों से भर गया. 

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डेंजर जोन

चुनाव करीब है. सर्वे की कई-कई रिपोर्ट आ रही है. हालांकि अब तक की रिपोर्ट में सरकार को किसी तरह का खतरा नहीं. लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि सर्वे रिपोर्ट में सत्तारूढ़ दल के करीब तीस विधायक डेंजर जोन में हैं. इनमें चार मंत्री भी शामिल हैं. इन मंत्रियों में सामान्य वर्ग से आने वाले एक ताकतवर मंत्री के साथ-साथ दो आदिवासी और एक अनुसूचित जाति वर्ग से है. चर्चा है कि इन मंत्रियों की टिकट कट सकती है. साल 2018 के चुनाव में बीजेपी ने जो गलती की थी, लगता नहीं कांग्रेस उसे दोहराएगी. तब रमन सरकार के आठ मंत्री चुनाव हार गए थे. इनमें अमर अग्रवाल, रामसेवक पैकरा, राजेश मूणत, प्रेमप्रकाश पांडेय, भैयालाल राजवाड़े, महेश गागड़ा और दयालदास बघेल शामिल थे. कांग्रेस को चुनाव जीतना है, तो टिकट वितरण में बड़े नेताओं की पैरवी को नजरअंदाज कर जिताऊ चेहरे को टिकट देना होगा. मुख्यमंत्री समय-समय पर विधायकों के कामकाज पर पैनी नजर रखते रहे हैं. विधायकों को रिपोर्ट देकर आईना दिखाया जाता रहा है. कुछ ठहर गए. संभल गए. कुछ सत्ता की खुमारी में डूबे रहे. जाहिर है ऐसे विधायकों की नवाबी चंद महीनों की है. लगता नहीं कि मौजूदा वक्त में कांग्रेस हारने वाले विधायकों को ढोकर चलेगी. 

बीजेपी के तीन गुट

एक वक्त था, तब बीजेपी कांग्रेस को गुटीय राजनीति के मामले पर घेरा करती थी. तब बीजेपी सरकार में थी. सत्तापक्ष में भी गुट होते हैं, लेकिन छिप जाते हैं. विपक्ष में उबाल मारते हुए कई गुट फूट पड़ते हैं. छत्तीसगढ़ बीजेपी भी गुटीय राजनीति के घेरे में है. बीजेपी में पहले दो ही गुट माने जाते थे. एक रमन गुट और दूसरा बृजमोहन गुट. राज्य के नेता इन दो गुटों में बंटकर रह गए थे. रमन गुट में विष्णुदेव साय, धरमलाल कौशिक, राजेश मूणत, गौरीशंकर अग्रवाल जैसे नेता शामिल थे, वहीं बृजमोहन गुट में प्रेमप्रकाश पांडेय, अजय चंद्राकर, शिवरतन शर्मा, रामविचार नेताम जैसे कई नेता थे. इन दो गुटो के परे एक तीसरा गुट बन गया है. यह गुट है प्रदेश अध्यक्ष अरुण साव का. अरुण साव बीजेपी की सक्रिय राजनीति से लंबे समय तक दूर रहे. 2019 के चुनाव में जब लोकसभा की टिकट पाकर सांसद बने, तब से सक्रिय राजनीति दोबारा शुरू हुई. जातीय समीकरण के आधार पर आलाकमान ने विष्णुदेव साय को हटाकर उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बना दिया. अरुण साव एबीवीपी से निकले नेता हैं, जाहिर है अब जब उनका गुट तैयार हो रहा है, तो इस गुट में एबीवीपी से निकले नेताओं का जमघट सजा है. आने वाले दिनों में रमन और बृजमोहन गुट के बीच साव गुट का अपना प्रभाव होगा.