कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करइ सो तस फल चाखा. तुलसीदास जी ने अपने दोहे में स्पष्ट किया है कि इस संसार में सभी कुछ है जिसे हम पाना चाहें तो प्राप्त कर सकते हैं लेकिन जो कर्महीन अर्थात प्रयास नहीं करते वे इच्छित चीजों को पाने से वंचित रह जाते हैं. सिंह को भी आलस्य त्यागना होता है तब खुराक मिलती है.

नीतिशास्त्र में कहा गया है कि न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:. इसका तात्पर्य यह है कि सिंह अगर शिकार करने न जाए और सोया रहे तो मृग स्वयं ही उसके मुख में नहीं चला जाएगा. यानि सिंह को अपनी भूख मिटानी है तो उसे आलस त्यागकर मृग का शिकार करना ही पड़ेगा. इसी प्रकार हम सभी को जिस चीज की, जिस मंजिल की तलाश है उसके लिए प्रयास करने की आवश्यकता है. प्रयास का फल देर से मिल सकता है या कम मिल सकता है लेकिन परिणाम मिलता जरुर है. पृथ्वी यानी कर्म की भूमि.

शास्त्रों में पृथ्वी को कर्म भूमि कहा गया है. यहां आप जैसे कर्म करते हैं उसी के अनुरूप आपको फल मिलता है. भगवान श्री कृष्ण ने ही गीता में कर्म को ही प्रधान बताया है और कहा है कि हम मनुष्य के हाथों में मात्र कर्म है अतः हमें यही करना चाहिए. ज्योतिष में कर्म और उसके लाभ दोनों का अधिकार शनि को है. शनि न्यायकर्ता ग्रह है. आप जैसा कर्म करेंगे फल उसी के अनुरूप होगा. यदि आपके कर्म किसी को हानि नही देंगे तो आपको उसका लाभ जरुर मिलेगा किन्तु यदि आपने कर्म किसी के लिए कष्ट दायक हो तो आपको जरुर पाप का भागी बना सकता है इसलिए अपने कर्म में सुचिता रखना चाहिए.

कर्म में शुचि रखने के लिए नैतिकता का ध्यान रखने के साथ ही जरूरत मंद की सेवा करना, ईमानदार रहना और जीव सेवा करने के साथ जीवम में अनुशासन को बनाये रखने के लिए शनि मन्त्र का जाप करना, तिल का दान करना और तिल के तेल का दीपक जलाकर पेड़ में रखना चाहिए.