केरल के त्रिशूर जिले में वडकुनाथन मंदिर स्थित है। इस अद्भुत और चमत्कारी मंदिर के विषय में जितना बताएं उतना कम है। इसे टेंकैलाशम और तमिल भाषा में ऋषभाचलम् भी कहते हैं। यह देवस्थल केरल के सबसे पुराने और उत्तम श्रेणी के मंदिरों में गिना जाता है। 1000 साल पुराना यह स्थान उत्कृष्ट कला और वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है, जो केरल की प्राचीन शैली को भलीभांति दर्शाता है। वडकुनाथन का अर्थ उत्तर के नाथ है जो केदारनाथ हो सकता है।
मंदिर को संरक्षण के लिए यूनेस्को का उत्कृष्टता पुरस्कार मिल चुका है। मंदिर पुरानी परंपराओं तथा वास्तु शास्त्र की संरक्षण तकनीकों के ज्ञान को समेटे हुए है। वडकुनाथ मंदिर को यह श्रेय 2015 में ही मिल चुका है। यह मंदिर लगभग 9 एकड़ के क्षेत्र में फैला हैं.
वडक्कुमनाथन’ मंदिर में स्थापित शिवलिंग का अभिषेक घी से किया जाता है। इसके चलते मंदिर का शिवलिंग हमेशा ही घी से ढका रहता है। भक्तों को यहां शिवलिंग नजर नहीं आता केवल 16 फुट ऊंचा घी का टीला ही नजर आता है। यह बर्फ से ढंके कैलाश पर्वत का प्रतिनिधित्व करता है। पूरी तहर घी से ढंके होने के कारण शिवलिंग दिखाई नहीं देता। घी की एक मोटी परत हमेशा इस विशाल शिवलिंग को ढंकी रहती है। शिवलिंग पूरी तरह घी से ढक होने के कारण सदियां बीत गईं, शिवलिंग को किसी ने देखा ही नहीं है.
त्रिशूर में गर्मी और बारिश दोनों ही काफी ज्यादा होती है। लेकिन इसके बावजूद भी यहां की कभी बदलता नहीं है और ना ही इस घी से किसी तरह की गंध आती है। मंदिर में एक रहस्य और भी है। स्थानीय निवासी बताती हैं कि मंदिर परिसर में एक भी चींटियां नहीं हैं. जबकि घी, मिष्ठान्नन, प्रसाद आदि की वजह से इस मंदिर में चींटियों का पाया जाना कोई बड़ी बात नहीं होती, लेकिन ऐसा नहीं है।
केरल स्थित इस मंदिर के निर्माण और सबसे पहले पुजारी के रूप में भगवान परशुराम का नाम आता है। ब्रह्मांड पुराण में इस कथा का जिक्र आता है। वडक्कुनाथन मंदिर में हर वर्ष आनापुरम महोत्सव आयोजित किया जाता है। जिसमें हाथियों को खाना खिलाया जाता है। यहां उन्हें उन्हें गुड़, घी और हल्दी के साथ मिला चावल खाने को दिए जाते हैं।
इस मंदिर से संबंधित अनेक किवदंतियाँ प्रचलित हैं। उन किवदंतियों में से एक आदि शंकर के जन्म से संबद्ध है। कलदी के शिवगुरु भट्ट एवं आर्यम्बा को दीर्घ काल तक संतान प्राप्ति नहीं हुई थी। उन्होंने श्री वडक्कन्नाथन मंदिर प्रार्थना की। एक वर्ष के भीतर ही उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। भगवान शिव के वरदान स्वरूप पुत्र का नामकरण उन्होंने शंकर किया।