वैभव बेमेतरिहा, रायपुर। आदिवासियों का विकास हो रहा है. लेकिन आदिवासी विकास के बीच एक सच्चाई ये भी है कि यहाँ आज भी हजारों आदिवासी भूमिहीन हैं. आदिवासियों के पास अपनी जमीनें नहीं. वे जिस जमीन रहते हैं उनका उन्हें मालिकाना हक नहीं. वन भूमि पर काबिज आदिवासी अपने अधिकारों को लेकर दशकों से लड़ाई लड़ रहे हैं. लेकिन आज भी प्रदेश के ऐसे हजारों आदिवासी हैं जो वनभूमि पर अधिकार से वंचित हैं. हक और अधिकार की ये लड़ाई 1952 से चल रही है लेकिन खत्म नहीं हुई. सरकारें आती-जाती रहीं लेकिन मांगे पूरी नहीं हुई.

लिहाजा एक बार फिर से एक बार आदिवासी अपने अधिकारों को लेकर लामबंद हो गए हैं. वन अधिकार कानून के तहत वन भूमि पर मालिकाना हक की मांग को लेकर धतमरी जिले के आदिवासियों ने राजधानी में धावा बोल दिया है. लोक तांत्रिक समाजवादी पार्टी के बैनर तले आज से सैकड़ों आदिवासी बूढ़ापारा धरना स्थल में धरने पर बैंठ गए हैं. नगरी-सिहावा क्षेत्र से पहुँचे आदिवासियों का आरोप है कि 1952 से वे वन भूमि पट्टा को लेकर लड़ रहे हैं. लेकिन आज तक पट्टा नहीं मिला. तीन पीढ़ियां आंदोलन कर चुकी है लेकि मांग पूरी नहीं हुई.

सामाजवादी नेता रघु ठाकुर का कहना है कि धमतरी जिले के नगरी-सिहावा क्षेत्र में तकरीबन 5 हजार आदिवासी आज भी वन अधिकार भूमि से वंचित हैं. छत्तीसगढ़ अलग राज्य बना. लेकिन इसका लाभ भी यहाँ आदिवासियों को नहीं मिल सका. कांग्रेस की सरकार बनी, भाजपा की सरकार बनी पर नहीं बनी तो आदिवासियों की नसीब. आदिवासी हितों के लिए रमन सरकार कुछ हद पहल की, लेकिन आज वह सार्थक नहीं पाई. मुख्यमंत्री से पूर्व में जब मुलाकात हुई तो उन्होंने गंभीरता से सारी बातें सुनते हुए मुख्य सचिव को निर्देशित किया था. लेकिन सरकारी प्रकिया में आज भी आदिवासी पीस रहे हैं. मजबूरन आज आदिवासी अपनी मांगों को लेकर राजधानी में धरना देने के लिए पहुँचे हैं. अब तब तक यहीं रहेंगे जब तक मांगें पूरी नहीं होगी.