रायपुर. वर्तमान परिदृष्य आर्थिक चुनौतियों से भरा दिखाई पड़ रहा है. कार्पोरेट जगत से लेकर कई अर्थवेता इसे अलग दृष्टि से परिभाषित भी कर रहे हैं. ऐसी स्थिति में प. दीनदयाल उपाध्याय का अर्थ चिंतन और दर्शन को पुनः विवेचन करना प्रासंगिक होगा. प्रस्तुत लेख वास्तविक दृष्टिबोध को स्मरण कराता है.

आज के संदर्भ को ध्यान में रखते हुये दीनदयालजी कहते हैं ”अर्थ“, जिसको हम आज धन के रूप में देखते हैं वह धन हमें क्यो चाहिए? वह धन हमको हमारे योगक्षेम की संपूर्ति होने के लिये चाहिये. योगक्षेम की संपूर्ति कैसे होती है? योगक्षेम की संपूर्ति होने से क्या होता है? अपने यहां एक कहावत है पहला सुख निरोगी काया, दूसारा सुख है घर में माया- शरीर स्वस्थ हो पास में पैसा हो, कितना पैसा होना चाहिये जिससे आदमी सुखी रहेगा. दीनदयालजी कहते हैं धन का अभाव और धन का प्रभाव दोनों ही धर्म की क्षति करते हैं? धर्म के क्षति का मतलब होता है जहां से हम यात्रा प्रारंभ करते हैं, जो गोमुख है हमारा, हम उसे ही विकृत कर रहे हैं तो हम गंतव्य तक नहीं पहुंच सकते और इसलिए समाज में व्यक्ति केपास धन इतना हो जो उसके योगक्षेम को पुरा करे. उसको यदि व्याख्यायित करे, तो न तो उसका अभाव होना चाहिये न उसका प्रभाव होना चाहिये.

जब समाज में अर्थ का अभाव हो जायेगा, तो जिनके पास अभाव हैं वे प्रभाव वालों की चोरी करेंगे. चोरी करना अपराध नहीं होगा. दीनदयालजी कहते हैं ऐसे में चोरी करना उसका आपद्धर्म बन जायेगा, अपराध करना आपद्धर्म बन बन जायेगा. वहां समाज में सुख नहीं रह सकता इसलिए उपाध्यायजी कहते हैं – समाज जब सम्पति के प्रभाव और अभाव से मुक्त होता है तो वह अपने अर्थायाम को सिद्ध करता है. वे साधन जिनसे हम सम्पदा के अभाव व प्रभाव से मुक्त हो जाते हैं वे ही अर्थायाम की सिद्धी करते हैं. उन्होंने आव्हान किया कि इसको समझकर अपनी रीति नीति बनानी चाहिये.

जिन दिनों दीनदयालजी यह बात कर रहे थे उन दिनों दुनिया में राजनीतिक लोकतंत्र एवं प्रतिष्ठित अवधारणा हो गयी थी. पिछली बार हमने चर्चा की थी उसमें पूज्य गुरूजी का वाक्य हमने दोहराया था – लोकतंत्र मानव द्वारा सोची गयी अबतक की व्यवस्थाओं में सबसे कम खराब है. उन्होंने सर्वश्रेष्ठ नहीं कहा. सर्वश्रेष्ठ अभी आना शेष है. मान की प्रज्ञा को विराम नहीं लगा है. आज जो हमारी जानकारी में उसमें लोकतंत्र सबसे खराब है। व्यावहारिक दृष्टि से क्या मतलब हैं लोकतंत्र का? जिस देश में वयस्क मताधिकार हैं वहां लोकतंत्र है. कोई समाज यह कहे कि हमारे यहां श्रेष्ठ लोकतंत्र हैं लेकिन वोटिंग राईट नहीं है तो कोई उसे मान्यता नहीं देता. कम्यनिष्ट ऐसे रहे हैं जिन्होंने वोटिंग राईट नहीं दिया संविधान में, लेकिन घोषणा की कि हम लोकतंत्र है. बिना वयस्क मताधिकार के लोकतंत्र नहीं होता. दीनदयालजी ने कहा जैसे राजनीतिक लोकतंत्र का आधार है वयस्क मताधिकार, वैसे ही आर्थिक लोकतंत्र का निकष है. हर वयस्क को कार्यावसर.

जो अर्थव्यवस्था कार्यावसर को घटाती है, वह अर्थव्यवस्था चाहे कितना भी अपना जीडीपी बढ़ लें, चाहे कितनी ही अपनी इन्कम बढ़ा लें, चाहे कितना ही बड़ा इन्फ्रास्ट्रक्चर बना लें, भव्यतम इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण के बावजूद दुनिया की तुलना में बढ़ा हुआ जीडीपी होने के बावजूद Percapita Income के आंकड़े उत्तम होने के बाजवूद वह व्यवस्था मानव के लिये त्रासदीपूर्ण हो सकती है, दुःखदायी हो सकती हैं. किसी भी अर्थव्यवस्था के अच्छे होने का मापदंड है कि वह आने वाली पीढ़ियों को कार्यावसर देती हैं या नहीं. इसलिये दीनदयालजी ने जब द्वितीय पंचवर्षीय योजना बनी तो आव्हान किया कि पंचवर्षीय योजनाओं को बनाते समय लक्ष्य घोषित किया जाये. हर हाथ को काम, हर व्यक्ति को कार्यावसर प्राप्त होना चाहिये. कार्यावसर प्राप्त नहीं होता है तो उचित व्यवस्था नहीं होगी. ऐसी योजना बननी चाहिये.

हम देखते हैं ऐसा नहीं हो सकता और हमारी अर्थव्यवस्था की गाड़ी कुछ इस कदर आगे बढ़ती चली गयी कि आजादी के 70 सालों में दो बातें बढ़ी हमारी आबादी और बेरोजगारी. आज स्थिति यह है कि भारत विश्व की युवा आबादी का सबसे बड़ा देश है. दुनिया किसी देश में इतने युवक नहीं है जितने भारत में हैं. इसलिए कार्यावसरों की जितनी भारत को है, दुनिया में उतनी जरूरत अन्य किसी देश को नहीं है. इसलिए संपूर्ण मानवता के लिये आवश्यक है कि वह कार्यावसर उत्पन्न करने वाली अर्थव्यवस्था बनायें भारत के लिये यह सर्वाधिक जरूरी है.

कार्यावसर कहां चले जाते हैं? दीनदयालजी वर्णन करते हैं, पहले हमारे यहां आबादी की चिंता होती थी तो लोग कहते थे चिंता करने की क्या जरूरत है, क्योंकि जो आने वाला व्यक्ति वह एक मुंह लेकर आया है तो दो हाथ भी लेकर आया है, क्या वह काम करके अपना एक मुंह नहीं भर लेगा. दो हाथ यानी वे कर्मशक्ति के परिचायक है और यदि हाथों को काम न मिले तो उसकी कर्मशक्ति का उपयोग न हो.

हर व्यक्ति कुछ ना कुछ कंज्यूम जरूर करता है. प्रत्येक व्यक्ति आहार करता है तो उसके पास कोई ना कोई ऐसा काम होना चाहिये जिससे वह कुछ ना कुछ उत्पादन कर सके.Independently जब उत्पादन के साधनों का केन्द्रीकरण हो जाता है, देश और उत्पादन पर थोड़े से लोगों का कब्जा हो जाता है, तब बहुत से हाथ बेरोजगार या बेकार हो जाते हैं. आज बड़ा विख्यात सा शब्द हो गया है बेरोजगार. बेराजगार शब्द भारतीय भाव में नहीं है, बेरोजगार शब्द पर्शियन का है और उसका अंग्रेजी Equivalent है Unemployment. बेरोजगारी या Unemployment के लिये भारतीय भाषा में कौन शब्द है? भारतीय भाषा में इसका कोई पर्यायवाची नहीं है. क्योंकि भारतीय समाज ने कभी यह विचार नहीं किया, कभी सोचा ही नहीं कि कोई व्यक्ति जिसे हम आज बेरोजगार कहते हैं वैसा बेराजगार हो सकता है. हमारी समाज रचना ऐसी है कि हर व्यक्ति जो उत्पन्न होता वह किसी न किसी कर्म क्षेत्र में उत्पन्न होता है. हालांकि आज उसकी नकल नहीं हो सकती और जब मैं इसका वर्णन कर रहा हूं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि इसे दोहराया जाये. वर्णन इसलिये करता हूं कि इसको समझा जाये. इसको जाना पहचाना जाये.

कुम्हार का बेटा कुम्हार ही बने, यह मैं नहीं कहना चाहता परंतु जब कोई व्यक्ति कुम्हार के घर में पैदा होता है तो उसे केवल उसे माता-पिता ही प्राप्त नहीं होते हैं, उसका धंधा भी प्राप्त होता है. कोई लोहार के घर में है हमारे यहां तो चेजारो का मोहल्ला है, उसका मतलब होता है ओपन यूनिवर्सिटी आफ आर्किटेक्चर, यह वास्तुकला का खुला विश्वविद्यालय है. हर गृहस्थी यहां की फेकल्टी है. हर उत्पन्न होने वाला बच्चा यहां शिष्य है. इसलिए वास्तुकला कि, औपचारिक षिक्षा की आवष्यकता हमारे यहां नहीं है। काष्ठकला औपचारिक व्यवस्था हमारे यहां नहीं है। आपको कोई गुरूकुल नहीं मिलेगा जिसमें आपको गहन गढ़ाई सिखाता हो.

आज हम शादी विवाह में गहने बनाने के लिये सोनार के पास जाते हैं उससे यह नहीं पूछते कि तेरेे पास कौन सी यूनिवर्सिटी की डिग्री या डिप्लोमा है. आभूषण बनाने के लिये उसको अपना सोना दे देते हैं पर उसकी डिग्री या डिप्लोमा की मान्यता पता नहीं करते, क्योंकि इसकी कोई जरूरत नहीं है. वह सुनार का बेटा है दैट्स आल. भारत वर्ष की समाज व्यवस्था किसी भी संतान को बिया बान में पैदा नहीं करती किसी भी संतान को असुरक्षा या अनिश्चितता देकर पैदा नहीं करती कि पता नहीं बड़ा होकर क्या करेगा? इसलिए भारत की भाषा में, चाहे भारत की प्रादेशक भाषाएं हो या भारत की हिंदी भाषा हो उसमें बेराजगारी या अनइप्लायमेंट के इक्वीलेंट कोई शब्द नहीं है क्योंकि समाज व्यवस्था ही ऐसी है कि उसमें कोई बेरोजगार हो नहीं सकता.

दीनदयालजी ने कहा यह व्यवस्था क्या है इसको पढ़ो हम इसमें कभी-कभी जातिवाद पढ़ते हैं तो कभी व्यक्ति को कभी उंचे या नीचे काम में बांध देने के नजरिये से पढ़ते हैं यह विकृति इसमें है. दीनदयालजी ने इस समाज व्यवस्था को विकेन्द्रीकरण के रूप में पढ़ा. उन्होंने कहा कि उत्पादन के साधानों का जितना विकेन्द्रीकरण होगा, धंधों का जितना विकेन्द्रीकरण होगा उतने ही कार्यावसर बढ़ेंगे, उत्पादन के साधनों का जितना विकेन्द्रीकरण होगा, उतने ही कार्यावसर घटेंगे. उन्होंने कहा इस भारतीय समाज व्यवस्था में जो हमें पढ़ना है वह है – we want decentralized economy  हमको विकेन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था चाहिये.