उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव का मीडिया के प्रति असंतोष समय-समय पर सार्वजनिक मंचों पर दिखाई देता रहा है. पत्रकारों से उनकी जाति पूछना, प्रेस वार्ताओं में आक्रामक भाषा, और हाल में एक मीडिया समूह पर मानहानि का मुक़दमा करने की घोषणा—ये घटनाएं लोकतांत्रिक मर्यादाओं पर कई सवाल खड़े करती हैं. इस पर दो मूल प्रश्न उभरते हैं- पहला, उनके शासनकाल में मीडिया की स्थिति क्या थी? और दूसरा, क्या वे अपनी या अपनी पार्टी की आलोचना को अस्वीकार्य मानते हैं?
जब सत्ता थी, तब प्रेस की दशा क्या थी?
2012 से 2017 के बीच उत्तर प्रदेश में मीडिया की सुरक्षा और स्वतंत्रता को लेकर गंभीर चिंताएँ सामने आईं. 2016 में Reporters Without Borders की वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स रिपोर्ट ने उत्तर प्रदेश को भारत के ‘पत्रकारों के लिए सबसे ख़तरनाक क्षेत्रों’ में शामिल किया. रिपोर्ट के अनुसार 2015 में राज्य में चार पत्रकारों की हत्या हुई और पत्रकारों पर हमले लगभग हर महीने दर्ज किए गए. प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया (PCI) और मीडिया वॉचडॉग्स—जैसे The Hoot—ने भी उस समय पत्रकारों की सुरक्षा और सरकार–मीडिया संबंधों पर चिंता जताई. संकेत स्पष्ट थे: सत्ता और सवालों के बीच तनाव बढ़ रहा था.
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जगेंद्र सिंह: एक नाम, एक जख़्म
अखिलेश सरकार के दौरान मीडिया पर खतरों का सबसे जघन्य उदाहरण शाहजहांपुर के स्वतंत्र पत्रकार जगेंद्र सिंह का मामला है. जून 2015 में जगेंद्र ने तत्कालीन पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री राम मूर्ति वर्मा पर अवैध खनन, भूमि कब्जा और एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता से गैंगरेप जैसे गंभीर आरोप सार्वजनिक किए। ये पोस्ट उनके फेसबुक पेज ‘शाहजहांपुर समाचार’ पर वायरल हुईं.
घर पर छापा, आग और आख़िरी बयान
1 जून 2015 को पुलिस और कुछ लोगों ने जगेंद्र के घर पर छापा मारा. परिवार के अनुसार, उन्हें मंत्री के ख़िलाफ़ लिखने से रोकने की कोशिश की गई. आरोप है कि पुलिस ने जगेंद्र को पीटा और पेट्रोल डालकर आग लगा दी. गंभीर रूप से झुलसे जगेंद्र ने अस्पताल में बयान दिया—“मंत्री ने मुझे मरवाया… पीट सकते थे, गिरफ़्तार कर सकते थे, पर जलाया क्यों?” 8 जून 2015 को उनकी मृत्यु हो गई. एफआईआर में मंत्री, एक इंस्पेक्टर और अन्य लोगों के नाम आए, कुछ पुलिसकर्मियों को निलंबित किया गया. परिवार ने CBI जाँच और मंत्री की बर्ख़ास्तगी की मांग की. अंतरराष्ट्रीय संगठनों—CPJ, Reporters Without Borders—और Amnesty International ने स्वतंत्र जाँच की अपील की.
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सरकारी रुख और अधूरी न्याय-यात्रा
सरकार की ओर से आत्महत्या की थ्योरी सामने आई, फोरेंसिक रिपोर्ट का हवाला दिया गया. मुख्यमंत्री ने मुआवजा और सरकारी नौकरी की घोषणा की, लेकिन मंत्री को हटाया नहीं गया. जांच राज्य पुलिस के पास ही रही और ठोस कार्रवाई नहीं हुई. यह मामला आज भी प्रेस स्वतंत्रता के लिए एक खुला घाव है.
विपक्ष में रहकर भी मीडिया से टकराव
विपक्ष में रहते हुए भी सपा नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा मीडियाकर्मियों के साथ बदसलूकी की घटनाएँ सामने आईं. 2021 में मुरादाबाद की एक रैली के दौरान पत्रकारों से सवाल-जवाब में तीखी झड़प हुई. आरोप है कि पत्रकारों को ‘बिके हुए’ कहकर अपमानित किया गया और सुरक्षा घेराबंदी में धक्का-मुक्की तक हुई. कई पत्रकारों को जान बचाने के लिए छिपना पड़ा.
जाति का सवाल और लोकतांत्रिक शिष्टाचार
PDA राजनीति की बात करने वाले अखिलेश यादव द्वारा पत्रकारों से उपनाम और जाति पूछने के वीडियो भी सामने आए. ‘मिश्रा’ उपनाम पर सार्वजनिक व्यंग्य—क्या यह स्वीकार्य है? यदि किसी पत्रकार द्वारा किसी नेता के ‘यादव’ उपनाम पर ऐसी टिप्पणी की जाए, तो क्या वह सहन की जाएगी? सवाल बराबरी और शिष्टाचार का है.
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मीडिया बहिष्कार का आह्वान: किस लोकतंत्र का हिस्सा?
अप्रैल 2025 में कुछ मीडिया समूहों के बहिष्कार की अपील और बाद की रैलियों व संसद सत्रों में मीडिया पर पक्षपात के आरोप—ये कदम लोकतंत्र के एक स्तंभ को ही निशाने पर लेते हैं. असहमति और आलोचना लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा हैं; बहिष्कार की भाषा संवाद के दरवाज़े बंद करती है.
आईना और आत्मावलोकन
अखिलेश यादव को यह याद रखना चाहिए कि लोकतंत्र में सत्ता और विपक्ष—दोनों की जवाबदेही समान होती है. आलोचनात्मक मीडिया को दुश्मन मानना नहीं, उससे संवाद करना राजनीतिक परिपक्वता है. जब मीडिया पर उंगली उठे, तो सत्ता के समय का आईना भी सामने होना चाहिए. कई बार पक्षपात केवल बाहर नहीं, दृष्टि के भीतर भी होता है.
-डॉ. विनम्र सेन सिंह
(इलाहाबाद विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं, राजनीतिक विश्लेषक और चिंतक के रूप में ख्यातिलब्ध हैं।)
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