लखनऊ. सनातन परंपरा में पूजा-अर्चना और अनुष्ठान की दो विधाए हैं. जिसमें एक दक्षिण मार्ग है और दूसरा वाम मार्ग है. इन दोनों पूजा पद्धति में से ज्यादातर दक्षिण विधा से ही पूजा-अर्चना और अनुष्ठान होते हैं. दक्षिण मार्ग को समयाचार भी कहते हैं. इसमें शास्त्रीय वेदांत, स्मृतियों, पुराणों, और दूसरे धार्मिक ग्रंथों का पालन किया जाता है. यानी इसमें सात्विक रीति से पूजन होता है. जबकि वाम मार्ग एक तांत्रिक और रहस्यमयी पद्धति है. इसमें शक्ति की पूजा और कुंडलिनी जागरण पर ज़्यादा ध्यान दिया जाता है. वाम मार्ग की साधनाएं अक्सर शमशान में की जाती हैं. जिसमें मांस, मदिरा और बलि का सहारा लिया जाता है. जब हम देवी पूजन की बात करते हैं तो बलि भी पूजा प्रक्रिया का एक हिस्सा होता है. समान्यत: देवी अर्चन में पशु बलि का विधान है. हालांकि ये ज्यादातर ग्रामीण अंचलों में प्रचलित है. लेकिन राजधानी के कैसरबाग में स्थित काली बाड़ी मंदिर में पशु बलि का विधान नहीं है.
पांच जीवों के मुंडों पर स्थापित हैं प्रतिमा
ये मंदिर बंगाली परंपरा के अनुसार सिद्ध पीठ के रूप में विराजमान है. जिसका निर्माण अगस्त, 1863 में कराया गया था. मंदिर की स्थापना करीब 160 पहले की गई थी. बतातें है कि मां काली के भक्त मधुसूदन बनर्जी ने सपने में मां के आदेश के बाद उन्होंने खुद ही एक मिट्टी की प्रतिमा तैयार की. इसे ही उन्होंने स्थापित किया. बताया जाता है कि यहां देवी को सांप, नेवला, वानर, एक पक्षी समेत कुल पांच जीवों के मुंडों की आधारशिला पर स्थापित किया गया था.
बलि की अनोखी प्रथा
एक समय में एस मंदिर में बलि दी जाती थी. शारदीय नवरात्र की नवमी तिथि को परंपरागत रूप से मंदिर में जीवित बलि की परंपरा थी. जो कि लंबे समय तक चली. लेकिन अब लंबे अरसे से यहां बलि पूरी तरह से वर्जित है. अब महानवमी पर यहां हवन पूजन के बाद जीवित बलि की जगह पंच फलों की बलि मां को अर्पित की जाती है.
ढाक वादन की प्रतियोगिता
इस मंदिर में हर बांग्ला उत्सव के दौरान आयोजन होते हैं. विशेषकर दुर्गा पूजा के दौरान केवल इसी मंदिर में ढाक वादन की प्रतियोगिता भी होती है. जो कि आकर्षण का केंद्र होती है. इसमें कई ढाकियों के दल ढाक वादन करते हैं. इस मंदिर का संचालन ट्रस्ट द्वारा किया जाता है. वर्तमान में यहां पर तीन पुजारी मां की सेवा में हैं.
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