लेखक- संदीप अखिल (स्टेट न्यूज़ कॉर्डिनेटर लल्लूराम डॉट कॉम) …. पिछले दिनों उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत का रिप्ड जींस पर रखें गए विचार से पूरे देश में परिधानों पर वाद विवाद शुरू हो गया है. जिसमें विवाद की मात्रा ज़्यादा है. उनका परिधान जींस को लेकर की गई टिप्पणी महिलाओं के आत्मसम्मान और उनकी गरिमा को स्पर्श करती हुई निसंदेह आपत्तिजनक थी. जिसके बाद स्थिति को भांपते हुए उन्होंने माफी भी मांगा. उन्होंने कहा कि उनके कहने का अर्थ वह नहीं था, जो लोग समझ रहे हैं. उनके इस बयान ने उन्हें आलोचना के धरातल पर ला दिया है. पूरे देश में इस विषय पर बहस छिड़ी हुई है.
बताते चलें कि तीरथ सिंह रावत के बयान पर नव्या नवेली नंदा के अलावा उनकी नानी जया बच्चन, गुल पनाग, सोना महापात्रा ने भी प्रतिक्रिया दी है. कंगना राणावत ने इन बातों को दूसरी दिशा में मोड़ते हुए कहा कि ऐसा न पहने की आप भिखारी जैसे लगे, पहने मगर देखकर. आपको बता दें कि देहरादून में एक वर्कशॉप के दौरान तीरथ सिंह रावत ने कहा था कि ‘रिप्ड जींस हमारे समाज के टूटने का मार्ग प्रशस्त कर रही है.
इससे हम बच्चों को बुरे उदाहरण दे रहे हैं, जो उन्हें नशीले पदार्थों के सेवन की और लेकर जाते हैं. यह सब सुनने पढ़ने के बाद मेरे मन में विचार आया की क्यों न परिधान पर उठे व्यवधान पर कुछ सम्यक संपुष्ट सामयिक समाधान के बिंबो पर विचार हो. मेरे विचार ही सर्वश्रेष्ठ सर्वमान्य हैं. ऐसा बिल्कुल नहीं है और भी अच्छे श्रेष्ठ पूज्य विचार हो सकते हैं. मैं सभी का सम्मान करता हूं. इसमें कोई संदेह नहीं है कि ऐसी बातों से नारी जाति की स्वतंत्रता बाधित हुई है, अपमानित हुई है. संविधान में स्त्री और पुरुष को समान अधिकार प्राप्त हैं.
चर्चा में वैचारिक संघर्ष तो सती प्रथा से लेकर तीन तलाक और रिप्ड जींस से लेकर पथ संचलन के हाफ पेंट तक बहुत सारे टिप्पणियां आपने देखी हैं. चाहे वो विजयवर्गीय जी की टिप्पणी हो या दिग्विजय सिंह जी का आइटम कहना हो. बहुत गंभीरता से इस विषय को समझा जाए कि भारतीय संस्कृति की धवल परंपरा के नाभि केंद्र में नारी का सम्मान है. हम अपने देश को भारत माता कहते हैं.
चीन को चीन माता या अमेरिका को अमेरिका माता या रूस को रूस माता नहीं कहा जाता है. लेकिन हम भारत माता कि पूज्य संस्कृति के लोग हैं. इस देश में इस प्रकार के अशिष्ट अभद्र संवाद दुर्भाग्यजनक है. कई चिंतकों का यह विचार आया कि भारत कई ध्रुवों में जी रहा है. कुछ 18वीं सदी में तो कुछ 19वीं सदी में तो कुछ 22वीं सदी में इसीलिए यह वैचारिक द्वंद्व आया है. सोच और चिंतन में, मैं एक सामान्य सी बात आपके सामने रखना चाहता हूं.
भारत के लोगों का सामाजिक और पारिवारिक परिवेश को यदि बारीकी से अनुभव करेंगे, तो पाएंगे कि चाहे वह 18वीं सदी का भारत हो या आज का भारत. नारी की भूमिका समाज और परिवार के संवर्धन के लिए सदा से बंटते आई है. उसने हमेशा स्नेह और ममता को बांटा है और अभी तक बांट रही हैं. जब किसी के यहां पुत्री का जन्म होता है, तो अमुख व्यक्ति की पुत्री हुई है ऐसा कहा जाता है. जब उसका विवाह हो जाता है तो वह अमुख व्यक्ति की पत्नी हैं ऐसा कहा जाता है. जब उस स्त्री की कोक पुष्पित होती है और वह मां बनती है और बच्चे को जन्म देती है मान लो उसका नाम आत्माराम है तो कहां जाता है की यह आत्माराम की मां है. उसके बाद आत्माराम की बहू आती है तो वो सास की भूमिका में आ जाती है.
भारत की सामाजिक और परिवारिक नाभिकीय ऊर्जा नारी है. उसके सम्मान पर किसी प्रकार का प्रश्न चिन्ह लगाया ही नहीं जा सकता है. संबोधन भूमिका परिधान समय-समय पर बदलते रहते हैं. विषय आता है की सोच बदलनी चाहिए. इस मान्यता के कई लोग समपोषक हैं. आज हमारा देश संक्रमण काल से गुजर रहा है. संदर्भ कोई भी हो उसे हम राजनीतिक रंग दे देते हैं. अपनी प्रतिक्रियाएं देना शुरू कर देते हैं, जबकि हर विषय राजनीतिक नहीं होता समाज से जुड़ा विषय सामाजिक चिंतन से ही समाधान तक पहुंच सकता है.
हमारे ग्रामीण अंचल में आज भी कहा जाता है “आप रूपी भोजन पर रुचि श्रृंगार” बदलाव तो हर जगह है. आप रूची भोजन का स्वरूप बुफे ने ले लिया है. क्या परंपरागत तरीके से जैसे हम खिलाते थे क्या खिला पा रहे हैं ? उसी तरीके से परिधान का भी स्वरूप बदला है, पर रुचि श्रृंगार का तात्पर्य सौम्यता और संस्कार परिधान में झलके यह भाव उसमें समाहित थे. लेकिन समय के अनुसार लोगों ने अपनी सुविधा से उसे परिभाषित किया कभी भी उसमें अधिकारों का हनन नहीं था.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि संक्रमित संस्कृति के अंधानुकरण से फैशन के इस दौर में और उसके अतिरेक में भारत की धवल परंपरा का भी उल्लंघन हुआ है. लेकिन इसके बाद भी मैं इस बात को दावे के साथ कहता हूं आज भी हमारी बहने मूल धारा से जुड़ी हुई है. यह वही बहने हैं, जो किसी भी परिवेश में रहे, किसी भी परिधान में रहे, लेकिन रक्षाबंधन के दिन रक्षा सूत्र बांधने के लिए अपने भाई की प्रतीक्षा करती हैं.
यह वही बहने हैं, जो पति की लंबी आयु के लिए वट सावित्री तीजा का व्रत रखती हैं. वस्त्रों और परिधान का प्रभाव केवल महिलाओं पर नहीं पड़ा, पुरुषों पर भी पड़ा. जिस तरीके का फैशन आज पुरुष कर रहे हैं, तो क्या इस पर भी हमें विचार करना चाहिए. हमने अपने साधुता को खो दिया है. साधुता का तात्पर्य है वैचारिक शुद्धता और आचरण से है. भारत में साधुता का कोई स्वरूप नहीं है. साधुता एक आचरण है, एक विचारधारा है.
“साधु चरित्र विमल कपासु” साधु का चरित्र कपास की तरह होता है. कपास कोमल होता है. उससे धागा बनता है. धागों से ही वस्त्र बनता है और वस्त्र व्यक्ति की लज्जा का निवारण करता है. वैसे साधु विचार सात्विक सोच समाज की वैचारिक व्यवस्था को निर्लज्ज होने से बचाती है. सभी पक्षों को आत्म विश्लेषण करने की आवश्यकता है.
आज कुंठित मानसिकता को बदलने की जरूरत है, क्योंकि दृष्टि से ही दृष्टिकोण बनता है. दृष्टि से सृष्टि का सृजन होता है. जंहा एक ओर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री जी से दृष्टि की दिशा बदलने का आग्रह है. वही देश की सम्मानित मातृशक्ति जो इस राष्ट्र की नाभिकीय ऊर्जा हैं. उनसे भी आग्रह है कि वो सजग रहे, संवेदनशील रहे अपने अधिकारों के प्रति. इस अप्रिय विवादित प्रसंग को यहीं विराम देने का आग्रह करते हुए मैं अपने विचारों को विराम देता हूं.
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