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रायपुर. भंवरलाल और कन्हैयालाल दो अलग-अलग इंसान नहीं हैं. दोनों एक जैसे ही हाड़-मांस के जीव थे. दोनों के दिल एक जैसे ही धड़कते थे. उनके रहने के ठिकाने भी एक दूसरे से ज्यादा दूर नहीं थे. दोनों को ही मार डाला गया. सिर्फ दोनों को मारने वाले और उनके तरीके ही अलग थे. राजस्थान के उदयपुर में कन्हैयालाल को जिस बर्बरता से मारा गया उसने हमारी आत्माओं को हिला दिया. हम कन्हैयालाल को मारे जाने से ज्यादा विचलित और भयभीत हैं.
हमने अपने को टटोलकर नहीं देखा कि भंवरलाल को जब मध्यप्रदेश के नीमच शहर में मारा गया, तब हमारी प्रतिक्रिया उतनी तीव्र और उत्तेजनापूर्ण क्यों नहीं थी ? यह भी हो सकता है कि हम भंवरलाल की हत्या को अब तक भूल ही गए हों. नागरिकों की दहशत भरी याददाश्त में या तो व्यक्तियों को मारे जाने का तरीका होता है या हमलावर और मृतक की धार्मिक पहचान या फिर दोनों ही. एक तीसरी स्थिति अखलाक जैसी भी हो सकती है, जिसके प्रति बहुसंख्यक प्रतिक्रिया संवेदनशून्यता की थी. यानी पूर्व में उल्लेखित दोनों स्थितियों से भिन्न. हम कई बार तय ही नहीं कर पाते हैं कि अमानवीय और नृशंस तरीकों से अंजाम दी जाने वाली मौतों के बीच किस एक को लेकर कम या ज्यादा भयभीत होना चाहिए. नागरिक भी ऐसे अवसरों पर हुकूमतों की तरह ही बहुरूपिये बन जाते हैं.
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कारणों को पता करने की कभी कोशिश नहीं की गई कि भंवरलाल की मौत ने व्यवस्था और नागरिकों को अंदर से उतना क्यों नहीं झकझोरा जितना उदयपुर को लेकर महसूस किया या करवाया जा रहा है. भंवरलाल को घर से बाहर निकलते वक्त रत्ती भर भी अंदाज नहीं रहा होगा कि वह कभी मारा भी जा सकता है. हरेक आदमी भंवरलाल की तरह ही रोज घर से बाहर निकलता है. इसके विपरीत, कन्हैयालाल को अपनी सिलाई की दुकान पर काम करते हुए भय या आशंका बनी रहती थी कि उसके साथ कुछ अप्रिय घट सकता है.
भाजपा की निलम्बित प्रवक्ता नूपुर शर्मा द्वारा की गई टिप्पणी से कन्हैयालाल का सम्बंध जाने-अनजाने या असावधानी से जुड़ गया था. उसने अपने को असुरक्षित महसूस करते हुए पुलिस से सुरक्षा की मांग भी की थी. सुरक्षा प्राप्त होना संदेहास्पद भी था. सरकारें प्रत्येक नागरिक को सुरक्षा नहीं प्रदान कर सकतीं पर प्रत्येक नागरिक से अपने लिए सुरक्षा की मांग अवश्य कर सकतीं हैं. भंवरलाल पूरी तरह से बेफिक्र था. न तो उसका संबंध किसी आपत्तिजनक टिप्पणी से था और न ही उसने किसी तरह की सुरक्षा की मांग की थी. वह फिर भी मारा गया. आश्चर्यजनक यह है कि दोनों ही हत्याओं के वीडियो बनाकर जारी किए गए.
हुकूमतों के कथित पक्षपात के विपरीत मेरी आत्मा भंवरलाल और कन्हैयालाल दोनों के साथ बराबरी से जुड़ी है. उसके पीछे कारण भी हैं, मैं दोनों हत्याओं की नृशंसता के बीच एक सामान्य नागरिक की हैसियत से कोई फर्क नहीं करना चाहता हूं. उदयपुर मेरे पिता और पुरखों का शहर है. पिता की उंगली पकड़कर बचपन में उदयपुर घूमता रहा हूं. वहां अब भी जाता रहता हूं. नीमच मेरे ननिहाल से जुड़ा हुआ शहर है. मां के साथ वहां जाता रहता था. अब अकेला जाता हूं. उदयपुर और नीमच के बीच सिर्फ सवा सौ किलोमीटर की दूरी है.
मैं अनुमान लगा सकता हूं कि भंवरलाल और कन्हैयालाल एक जैसे नेक इंसान रहे होंगे. दोनों को ही दो अलग-अलग जगहों पर एक जैसी नजर आने वाली परिस्थितियों का शिकार होना पड़ा. कन्हैयालाल के चले जाने का दुख मनाते हुए भंवरलाल को इसलिए विस्मृत नहीं होने देना चाहिए कि अगर चीजें नहीं बदली गईं तो सड़क पर चलने वाला कोई भी व्यक्ति उसी तरह की मौत को प्राप्त हो सकता है और फिर हत्यारे के द्वारा जारी किए जाने वाले वीडियो से ही उसकी शिनाख्त हो पाएगी.
कन्हैयालाल, भंवरलाल या इन दोनों के पहले हुई मौतों के लिए असली जिम्मेदार किसे माना जाना चाहिए ? क्या नूपुर शर्मा को ही देश की सारी तकलीफों का एकमात्र कारण और गुनाहगार बताते हुए उन तमाम धार्मिक नेताओं, मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, आदि को बरी कर दिया जाना चाहिए जो धार्मिक उन्माद और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिए सत्ता की राजनीति करना चाहते हैं? हमने गौर नहीं किया होगा. अचानक ऐसा क्या हो गया है कि धार्मिक विध्वंस फैलाने वाली तमाम आवाजें एकदम से धीमी पड़ गई हैं. क्या नागरिक नहीं बल्कि कोई केंद्रीय शक्ति इस बात को नियंत्रित करती है कि देश में कब किस तरह का माहौल बनना या नहीं बना रहना चाहिए ?
देश के अलग-अलग भागों में अपने खिलाफ दर्ज हुए प्रकरणों को दिल्ली स्थानांतरित करने संबंधी नूपुर शर्मा की याचिका को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी की थी कि ‘जिस तरह से उन्होंने पूरे देश की भावनाओं को आग लगा दी है, देश में फिलहाल जो हो रहा है उसके लिए यह महिला अकेली जिम्मेदार है’.
सुप्रीम कोर्ट का ऐसा कहना क्या पूरी तरह से सही मान लिया जाए ?
धार्मिक नगरी हरिद्वार में पिछले साल दिसम्बर में हुई साधु-संतों की ‘धर्म संसद’ में अत्यंत उत्तेजना के साथ हिंदू बहुसंख्यक समुदाय का आह्वान किया गया था कि उसे अल्पसंख्यकों के खिलाफ शस्त्र उठाना होगा. हरिद्वार की इस विवादास्पद ‘धर्म संसद’ के बाद एक बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों, न्यायविदों, सेवानिवृत अफसरों, पूर्व सैन्य अधिकारियों, आदि ने चिंता व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री से अपील की थी कि वे अपनी चुप्पी तोड़ें. यह आशंका भी जाहिर की गई थी कि देश को गृह-युद्ध की आग में धकेला जा रहा है. न तो प्रधानमंत्री, आरएसएस के किसी नेता, अथवा सत्तारूढ़ दल के मंत्री-मुख्यमंत्री ने ही हरिद्वार और उसके बाद अन्य स्थानों पर उगले गए धार्मिक जहर की निंदा की.
इसी साल जनवरी में वरिष्ठ पत्रकार कुर्बान अली और पटना हाईकोर्ट की पूर्व जज अंजना प्रकाश ने सुप्रीम कोर्ट का ध्यान देश के विभिन्न स्थानों पर आयोजित होने वाले धार्मिक जमावड़ों के जरिए फैलाए जा रहे साम्प्रदायिक विद्वेष की ओर आकर्षित किया था. पर याचिकाओं की सुनवाई के दौरान किसी भी स्तर पर उस तरह की टिप्पणी नहीं की गई. जैसी नूपुर शर्मा की याचिका को निरस्त करते हुए की गई. कुर्बान अली-अंजना प्रकाश की याचिकाओं पर अगली (या अंतिम )सुनवाई माह के अंत में सम्भावित है.
भंवरलाल और कन्हैयालाल की हत्याओं को सत्ता की राजनीति के लिए धार्मिक उन्माद का शोषण करने की बेलगाम प्रवृत्ति की हिंसक परिणति के रूप में भी देखा जा सकता है. नूपुर शर्मा की टिप्पणियां भी हरिद्वार जैसे धार्मिक जमावड़ों और सत्ता में आसीन लोगों के मौन से पैदा होने वाले उन्माद की ही उपज हैं. निर्दोष लोगों की हत्याओं और देश की भावनाओं को आग लगाने वाले असली दोषियों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी आना अभी बाकी हैं. धर्मनिरपेक्ष नागरिक उसकी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे हैं.